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न उंजिज्जा न घट्टिज्जा, नो णं निव्वावर मुणी ||6|| सं.छा.: अङ्गारमग्निमर्चिः, अलातं वा सज्योतिः।
. नोत्सिञ्चेन्न घट्टयेन्नैनं निर्वापयेन्मुनिः ।।८।। भावार्थ : बिना ज्वाला के, अंगारे, अग्नि, लोहे के तपे हुए गोले में रही हई अर्चि, ज्वालायुक्त अग्नि, अलात, जलती लकड़ी आदि को न प्रज्वलित करें, न स्पर्श करें, न बुझायें। किसी प्रकार से अग्नि काय का उपयोग न करें। (तीन करण तीन योग से) ।।८॥ वाउकाय की रक्षा :
तालिअंटेण पत्तेण, साहार विहुयणेण वा।
'न वीइज्ज अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पुग्गलं ||९|| सं.छा.: तालवृन्तेन पत्रेण, शाखया विधूवनेन वा।
न वीजयेदात्मनः कायं, बाह्यं वापि पुद्गलम् ।।९।। भावार्थ : गर्मी के कारण मुनि वींजन ताड़पत्र के पंखे से,कमल आदि के पत्तों से, वृक्ष की शाखा से, मोरपीछी से स्व शरीर को हवा न करें, बाहर के अन्य पुद्गल कों, चाय, दूध, पानी को ठंडा बनाने हेतु हवा न करें ।।९।। . . . वनस्पतिकाय की रक्षा :
तणरुक्खं न छिंदिज्जा, फलं मूलं च कस्सई।
आमगं विविहं बीअं, मणसा वि न पत्थर ||१०|| सं.छा.ः तृणरुक्षं न छिन्द्यात्, फलं मूलं च कस्यचित्।
आमकं विविधं बीजं, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ।।१०।। भावार्थ : मुनि तृण, वृक्ष और किसी भी जाति के फल एवं मूल का छेदन भेदन न करें एवं विविध प्रकार के कच्चे बीजों को ग्रहण करने हेतु मन में विचार भी न करें ।।१०।।
गहणेसु न चिट्ठिज्जा, बीएसु हरिएसु वा। ।
उदगंमि तहा निच्चं, उत्तिंग-पणगेसु वा ||११|| सं.छा.: गहनेषु न तिष्ठेद्, बीजेषु हरितेषु वा।
उदके तथा नित्यं, उत्तिङ्गपनकयोर्वा ॥११॥ भावार्थ : मुनि जहां खड़े रहने से वनस्पति का संघट्टा होता हो ऐसे वन निकुंजों (गाढझाड़ी) में खड़ा न रहे बीज, हरी वनस्पति, उदक या अनंत कायिक वनस्पति, उत्तिंग सर्पछत्र, पांचवर्ण की सेवाल/काई पर खड़ा न रहे ।।११।। त्रसकाय की रक्षा :
तसे पाणे न हिँसिज्जा, वाया अदुव कम्मुणा। . उवरओ सव्वभूएसु, पासेज्ज विविहं जगं ||१२|| ..
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 126