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तिविहेण करण-जोएण, संजए सुसमाहिष्ट ||४|| सं.छा.: पृथिवीं भित्तिं शिलां लेष्टुं, नैव भिन्द्याद् नो संलिखेत् ।
त्रिविधेन करणयोगेन, संयतः सुसमाहितः ।।४।। भावार्थ : सुविहित मुनि शुद्ध पृथ्वी, नदी किनारे की दीवार दरार, शिला और पत्थर के टुकड़े जो सचित्त हो उसका तीन करण तीन योग से छेदन, भेदन न करें, न कुरदे (खोदे नहीं) ॥४॥
सुद्धपुढवीए न निसीए, ससरक्खंमि अ आसणे।
पमज्जितु निसीइज्जा, जाइत्ता जस्स उग्गहं ||५|| सं.छा.: शुद्धपृथिव्यां न निषीदेत्, सरजस्के च आसने। . प्रमृज्य निषीदेत्, ज्ञात्वा याचित्वा यस्यावग्रहम् ।।५।। भावार्थ : मुनि सचित्त पृथ्वी पर, सचित्त रज युक्त आसन पर न बैठें, पर अचित्त पृथ्वी आसन आदि हो तो आवश्यकता होने पर मालिक की अनुज्ञा लेकर, प्रमार्जन करके बैठे ||५|| अप्काय रक्षा :
सीओदगं न सेविज्जा, सिलावुलु हिमाणि ।
उसिणोदंगं तत्त-फासुअं, पडिगाहिज्ज संजए ||६|| सं.छा.ः शीतोदकं न सेवेत, शिलावृष्टं हिमानि च। । .: उष्णोदकं तप्तप्रासुकं, प्रतिगृह्णीयात्संयतः ।।६।। भावार्थ : मुनि, सचित्त जल; ओले, बरसात का जल, हिम, बरफ के पानी का उपयोग न करें, पर उष्ण जल तीन बार उबाला हुआ, अचित्त हो उसका उपयोग करें ।।६।।
.. उदउल्लं अप्पणो कार्य, नेव पुंछे न संलिहे। . . . समुप्पेह तहाभुअं, नो णं संघदृष्ट मुणी ||७|| सं.छा.: उदकार्द्रमात्मनः कायं, नैव पुञ्छयेन्न संलिखेत्। ...'. सम्प्रेक्ष्य तथाभूतं, नैव सङ्घट्टयेन्मुनिः ।।७।। भावार्थ : सचित्त जल से आद्र स्व शरीर को न पोंछे और हाथ आदि से न लंछे। वैसे शरीर का किंचित् स्पर्श भी न करें। अर्थात् हाथ भी न लगावें वैसा ही रहने दें ।।७।। .. भीगे शरीर सहित उपाश्रय में आकर एक ओर खड़ा हो जाय कुदरतन शरीर सुख जाने के बाद दूसरा कार्य करें। भीगे वस्त्र एक ओर रख दे, सुख जाने के बाद उसे हाथ लगावें। अग्निकाय की जयणा :
इंगालं अगणिं अच्चिं, अलायं वा सजोइयं|
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 125