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शीतल होकर ।।६०।। (निक्खंतो) निकला है (अणुपालिज्जा) पालन करे (आयरिअसंमए) आचार्य को बहु संयत ।।६१।। (सेणाइ) सेना से (समत्तमाउहे) तपस्या आदि आयुधयुक्त (अहिट्ठिए) करने वाला ऐसा साधु (सूरे) शूरवीर पुरुष के जैसा (परेसिं) दूसरे शत्रुओं को ||६२।। (सज्झाण) सद्ध्यान (अपावभावस्स) शुद्ध चित्तयुक्त . (समीरिअं) अग्नि से तपा हुआ (रूप्पमल्लं) चांदी का मल (जोइणा) अग्नि से ।।६३।। (अममे) ममता रहित (विरायइ) शोभता है (कम्मघणमि) कर्मरूपी बादल (अवगए) दूर होने पर (कसिणब्भपुडावगमे) समग्र बादल दूर होने पर ।।६४।। गुरु कथन :
आयार-प्पणिहिं लब्द्धं, जहा कायव्व भिक्खूणा। ..
तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुट्विं सुणेह मे ||१|| सं.छा. आचारप्रणिधिं लब्ध्वा, यथा कर्त्तव्यं भिक्षुणा।
तं भवद्भ्य उदाहरिष्यामि, आनुपूर्व्या शृणुत मे ॥१॥ भावार्थ : श्री महावीर परमात्मा से प्राप्त आचार प्रणिधि नामक अध्ययन में श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यों से कहते हैं कि 'मुझे जो आचार प्रणिधि प्राप्त हुई वह मैं अनुक्रम से कहुंगा। सो तुम सुनो।' उस आचार निधि को प्राप्तकर, जानकर, मुनिओं को उस अनुसार पूर्ण रूप से क्रिया करनी चाहिए ।।१।। जीव :
पुढवी-दग-अगणिमारुअ, तण-रुक्ख-सबीयगा।
तसा अ पाणा जीव ति, इई वुत्तं महेसिणा ||२|| सं.छा.ः पृथिव्युदकाग्निमारुतास्तृणरुक्षाः सबीजकाः ।,
त्रसाश्च प्राणिनो जीवा इति, इति प्रोक्तं महर्षिणा ।।२।। भावार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, मूल से बीज तक तृण, वृक्ष और दो इंद्रियादि त्रस प्राणी, जीव हैं। इन सब में जीव है। ऐसा श्री वर्धमान स्वामीने कहा है।।२।। जीव रक्षा - पृथ्वीकाय रक्षा :
तेसिं अच्छण-जोएण, निच्चं होअव्वयं सिआ ।
मणसा काय-वकेणं, एवं हवइ संजए ||३|| सं.छा.ः तेषामक्षणयोगेन, नित्यं भवितव्यं स्यात्।
मनसा कायवाक्येन, एवं भवति संयतः ।।३।। भावार्थ : इस कारण से भिक्षु को मन, वचन एवं काया से पृथ्वी आदि जीवों की रक्षा करनेवाला होना चाहिए। पृथ्वी आदि जीवों की रक्षा करनेवाला (अहिंसक रहनेवाला) ही संयमी, संयत होता है।।३।। पुढविं भित्तिं सिलं लेलु, नेव भिंदे न संलिहे।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 124