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निकाय में संयमवान् और चारित्र पालन में उद्यमवंत ज्ञानी साधु सदोष भाषा का निरंतर त्याग करें एवं हितकारी, परिणाम में सुंदर एवं अनुलोमिक/अनुकूल/मधुर भाषा का प्रयोग करें ।।५६।। परिक्खभासी सुसमाहि-इंदिर,
चउकसाया-वगए अणिस्सिप्ट। स निद्भुणे धुण्णमलं पुरेकडं,
आराहए लोगमिणं तहा परं ।।५७|| ति बेमि || सं.छा.: परीक्ष्यभाषी सुसमाहितेन्द्रियः,
अपगतचतुष्कषायोऽनिश्रितः। स निधूय धूतमलं पुराकृतं,
आराधयति लोकमेनं तथा परमिति ब्रवीमि ।।५७।।
इति सद्वाक्यशुद्ध्यध्ययनं समाप्तम् ।।७।। भावार्थ : गुण, दोष की परीक्षा कर भाषक,इंद्रियों को वश में रखनेवाला,क्रोधादि चार कषाय पर नियंत्रण करनेवाला, द्रव्य भाव निश्रा रहित (ममत्व के बंधन से रहित) ऐसे महात्मा जन्मान्तर के पूर्वकृत पापमल को नष्टकर वाणी संयम से वर्तमान एवं भावीलोक की आराधना करता है।
.. श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते हैं कि हे मनक! ऐसा मैं अपनी बुद्धि से नहीं कहता हूँ तीर्थंकर गणधर आदि महर्षियों के कथनानुसार कहता हूँ।।।५७।।
सुवाक्यशुद्धि नामक सप्तम अध्ययन समाप्त ।।७।।
८ आचारप्रणिधिनामकं अष्टमं अध्ययनम् संबंध - पूर्व के अध्ययन में भाषा शुद्धि का वर्णन किया है। भाषा शुद्धि आचार पालक भव्यात्मा के लिए ही आत्मोपकारी है। आचारहीन व्यक्ति भाषा शुद्धि का उपयोग रखता है तो भी उसके लिए वह माया युक्त हो जाने से अशुभ कर्म बन्ध का कारण हो सकती है। भाषाशुद्धि आचार पालन युक्त ही उपयोगी है। अतः अष्टम अध्ययन में आचार की, साध्वाचार की प्ररूपणा श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी म.सा. करते हैं। अष्टम आचार प्रणिधि अध्ययन उपयोगी शब्दार्थ - (आयारप्पणिहिँ) आचारनिधि, आचार में दृढ मानसिक संकल्प (भे) तुमको (उदाहरिस्सामि) कहुंगा ।।१।। (इइ) इस प्रकार ।।२।। (अच्छण-जोअण) जीवरक्षणयुक्त (होअव्वयं सिआ) होना चाहिए ।।३।। (लेलं) पत्थर का ढेला (भिंदे) टुकड़े करे (संलिहे) घिसे (सुसमाहिए) निर्मल स्वभाव युक्त ।।४।। (सिलावुटुं) ओले ।।५।। (उदउल्लं) जलाद्र ।।६।। (अलायं) अलात जलती
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 122