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वर्षा के लिए कहना और ऋद्धि युक्त व्यक्ति को देखकर यह ऋद्धिमान् है ऐसा कहना
५३।। वाक्शुद्धि अध्ययन का उपसंहार :. तहेव सावज्जणुमोअणी गिरा,
ओहारिणी जा य परोवघाइणी। से कोह लोह भय हास माणवो, .. न हासमाणो वि गिरं वइज्जा ||५४|| सं.छा.ः तथैव सावद्यानुमोदिनी गीः, अवधारिणी या च परोपघातिनी।
तां क्रोधाल्लोभाद्भयाद्धास्याद्वा, न हसन्नपि गिरं वदेत् ।।५४।। भावार्थ : विशेष में मुनि सावध कार्य को अनुमोदनीय, अवधारिणी (संदिग्ध के विषय में असंदिग्ध) निश्चयात्मक या संशयकारी, परउपघातकारी भाषा का प्रयोग न करें। क्रोध से,लोभ से, भय से, हास्य से एवं किसी की हंसी मजाक करते हुए नहीं बोलना। ऐसे बोलने से अशुभ कर्म का विपुल बंध होता है। .. सुवकसुद्धिं समुपेहिआ मुणी,
गिरं च दुटुं परिवज्जर सया। मिअं अदुळं, अणुवीइ भासए,
सयाण मज्झे लहइ पसंसणं ।।५५|| .सं.छा. सद्वाक्यशुद्धि समुत्प्रेक्ष्य मुनिः,
गिरं च दुष्टां परिवर्जयेत्सदा। . .. मितमदुष्टमनुविचिन्त्य भाषमाणः,
. सतां मध्ये लभते प्रशंसनम् ।।५।। भावार्थ : इस प्रकार मुनियों को उत्तम वाक्शुद्धि को ज्ञातकर दुष्ट सदोष भाषा नहीं बोलनी चाहिए, पर मित भाषा, वह भी निर्दोषवाणी, विचारपूर्वक बोलनी चाहिए। ऐसे बोलने से वह मुनि सत्पुरुषों में प्रशंसा पात्र होता है। प्रशंसा प्राप्त करता है। - भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणिआ,
तीसे अ दुट्टे परिवज्जर सया। छसु संजए सामणिर सया जप्ट,
वइज्ज बुद्धे हिअमाणुलोमिअं ||५६|| सं.छा. भाषाया दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा, तस्याश्च दुष्टायाः परिवर्जकः सदा। .. षट्सु संयतः श्रामण्ये सदा यतो, वदेद् बुद्धो हितमानुलोमिकम् ।।५६।। भावार्थ : भाषा के दोष एवं गुणों को यथार्थ जानकर, दुष्ट भाषा का वर्जक, छज्जीव
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 121.