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जो मोक्ष मार्ग का साधक साधु है उसे ही साधु कहें।
ज्ञान-दर्शन सहित संयम एवं तप में रक्त हो ऐसे गुण समायुक्त संयमी साधु को साधु कहें। पर मात्र द्रव्य लिंगधारी को साधु न कहें ।।४८-४९।। युद्ध के समय भाषा का उपयोग :
देवाणं मणुआणं च, तिरिआणं च वुग्गहे।
अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ ति नो वर ||५०।। सं.छा.ः देवानां मनुजानां च, तिरश्चां च विग्रहे।
अमुकानां जयो भवतु, मा वा भवत्विति नो वदेत् ।।५।। भावार्थ : देव, मनुष्य या तिर्यंचों को आपस में युद्ध के समय में किसी का जय एवं किसी का पराजय हो ऐसा साधु न बोले ।।५०।। ऋतुकाल में भाषा का प्रयोग :
वाओ वुटुं च सीउण्हं, खेमं धायं सिवं ति वा। .
कया णु हुज्ज एआणि? मा वा होउ त्ति नो वर ||५१।। सं.छा.: वातो वृष्टं च शीतोष्णं, क्षेमं ध्रातं शिवमिति वा।
कदा नु भवेयुरेतानि? मा वा भवेयुरिति नी वदेत् ।।५।। भावार्थ : गर्मी की मौसम में पवन, वर्षा की ऋतु में वर्षा एवं शीत ऋतु में सर्दी, ताप, क्षेम(रक्षण) सुकाल, उपद्रव रहितता आदि कब होंगे या ये कब बंद होंगे इत्यादि न कहें। ऐसा कहने से अधिकरणादि दोष, प्राणी पीड़न एवं आर्त ध्यानादि दोष लगते हैं ।।५१।।
तहेव मेहं व नहं व माणवं, न देवदेवत्ति गिरं वइज्जा ।
समुच्छिए उन्लए वा पओए, वइज्ज वा पुठ्ठबलाहये ति||५२।। सं.छा. तथैव मेघं वा नभो वा मानवं, न देवदेव इति गिरं वदेत्। . सम्मूर्च्छित (समुच्छ्रित) उन्नतो वा पयोदो,
वदेद्वा वृष्टो बलाहक इति ।।५।। भावार्थ : इसी प्रकार मेघ, आकाश और राजादि को देखकर यह देव है ऐसा न कहें पर यह मेघ उमड़ रहा है, उन्नत हो रहा है, वर्षा हुई है, ऐसा कहना। मेघ, आकाश, राजादि को देव कहने से मिथ्यात्व एवं लघुत्वादि दोष होते हैं ।।५२।। ___ अंतलिक्ख ति णं बूआ, गुज्झाणुचरिअ ति |
रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतं ति आलवे ||५३।। सं.छा.: अन्तरिक्षमिति वै ब्रूयाद्, गुह्यानुचरितमिति च।
ऋद्धिमन्तं नरं दृष्ट्वा, ऋद्धिमानयमित्यालपेत् ।।५३।। ... भावार्थ : आकाश को अंतरिक्ष, मेघ को गुह्यानुचरित (देव से सेवित) कहें। ये दो शब्द
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 120