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की बाजी लगानेवाला, नदी का मार्ग प्रायः सम है। ऐसी भाषा साधु बोले ।।३७।। नदी के विषय में भाषा का प्रयोग :
तंहा नइओ पुण्णाओ, कायतिज्ज ति नो वर। नावाहिं तारिमाओ त्ति, पाणिपिज्ज त्ति नो वर ||३८|| बहुबाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा।
बहुवित्थडोदगा आवि, एवं भासिज्ज पल्लवं ||३९|| सं.छा. तथा नद्यः पूर्णाः, कायतरणीया इति नो वदेत्।
नौभिस्तरणीया इति, प्राणिपेया इति नो वदेत् ।।३८।। बहुभृता अगाधा, बहुसलिलोत्पीलोदकाः।
बहुविस्तीर्णोदकाश्चापि, एवं भाषेत प्रज्ञावान् ।।३९।। भावार्थ : ये नदियाँ भरी हुई हैं, हाथों से तैर सके ऐसी हैं, नौका से दूसरे किनारे जा सके ऐसी हैं, किनारे पर रहकर प्राणी पानी पी सके ऐसी हैं ऐसा साधु न कहे ॥३८॥
प्रयोजनवश कहना पड़े तो प्रायः नदी भरी हुई है। प्रायः अगाध है। बहुसलिला, अधिक जलयुक्त है। दूसरी नदियों के द्वारा जल का वेग बढ़ रहा है। नदी के किनारे आर्द्र हो जाय ऐसी अतीव विस्तारवाली है विस्तीर्ण जलयुक्त है। बुद्धिमान् श्रमण इस प्रकारं बोलें ॥३९।। विविध विषयों में भाषा का प्रयोग :
तहेव सावज्जं जोगं, परस्सट्ठाट निष्ठि।
कीरमाणं ति वा नच्चा, सावज्जं नालवे मुणी ||४०|| सं.छा.ः तथैव सावधं योगं, परस्यार्थाय निष्ठितम्। .
क्रियमाणं वा ज्ञात्वा, सावधं नालपेन्मुनिः ॥४०॥ भावार्थ : दूसरों के निमित्त से हो रहे एवं पूर्व में किये गये सावध कार्यों के विषय में मुनि सावध वचन न बोलें ॥४०॥ ... सुकडित्ति सुपतित्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे।
सुनिष्ठिर सुलठ्ठित्ति, सावज्जं वज्जर मुणी ।।४१।। सं.छा.ः सुकृतमिति सुपक्वमिति, सुच्छिन्नं सुहृतं सुमृतमिति। ... सुनिष्ठितं सुलष्टेति, सावद्यं वर्जयेन्मुनिः ।।४।। भावार्थः सभा भवन अच्छा बनाया या भोजन आदि अच्छा बनाया, सहस्रपाक तेल आदि या घेवर आदि अच्छा पकाया, वन,जंगल, पत्रशाक आदि अच्छा छेदा है,शाक की तिक्तता अच्छी है, लोभी का धन हरण हुआ यह अच्छा हुआ, यह शत्रु मर गया, या यह अच्छा हुआ दाल या सत्तु में घी आदि मिलाया अभिमानीका धन नष्ट हुआ यह
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 117