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________________ ३१॥ ये आम्र आदि के फल पक गये हैं, पकाकर खाने योग्य है ऐसा न कहे। ये फल परिपूर्ण पक गये हैं उन्हें उतार लेने चाहिए, ये कोमल है, या ये दो भाग करने लायक है ऐसा न कहें ||३२|| प्रयोजनवश कहना पड़े तो ये आमवृक्ष फल धारण करने में अब असमर्थ है। गुठली युक्त अधिक फल वाले हैं। एक साथ उत्पन्न हुए अधिक फलवाले हैं। इस प्रकार निर्दोष भाषा का मुनि प्रयोग करें ||३३|| [ तहेवो] तहोसहिओ पक्काओ, नीलिआओ छवीइ अ लाइमा भज्जिमाउत्ति, पिहुखज्ज त्ति नो वर ||३४|| रूढा बहुसंभूआ, थिरा ओसठा वि अ गब्भिआओ पसूआओ, ससाराउ ति आलवे ||३५|| सं.छा.ः तथौषधयः पक्वा, नीलाश्छ्वय इति च। लवनवत्यो भर्जनवत्यः, पृथुकभक्ष्या इति नो वदेत् ||३४|| रूढा बहुसम्भूताः, स्थिरा उत्सृता अपि च। गर्भिताः प्रसूताः ससारा इत्यालपेत् ।।३५।। भावार्थ : चाँवल, गेहूँ आदि औषधियाँ तथा वाल, चना आदि पक गये हैं, काटने योग्य , भूनने योग्य है, पोंक करके खाने योग्य है। ऐसा साधु न कहे। प्रयोजनवश कहना पड़े तो ये गेहूँ आदि औषधियाँ अंकुरित है, निष्पन्न प्रायः है, परिपूर्ण रूप से तैयार है, ऊपर उठ गयी हैं, उपघात से निकली है, भूट्टों से सहित है, चावल आदि तैयार हो गये हैं इस प्रकार निर्दोष भाषा का प्रयोग करें ।। ३४-३५।। संखडी आदि के विषय में भाषा का प्रयोग : तहेव संखडि नच्चा, किच्चं कज्जं ति नो वर । तेगं वावि वज्झित्ति, सुतित्थि ति अ आवगा ||३६|| संखडि संखडि बूआ, पणिअहं ति तेणगं । बहुसमाणि तित्याणि, आवगाणं विआगरे ||३७|| सं.छा.ः तथैव सङ्खडिं ज्ञात्वा कृत्यां कायमिति नो वदेत्। स्तेनकं वाऽपि वध्य इति, सुतीर्था इति च आपगा ||३६|| सङ्खडिं सङ्खडिं ब्रूयात्, प्रणितार्थ इति स्तेनकम्। बहुसमानि तीर्थानि, आपगानां व्यागृणीयात् ।।३७।। भावार्थः संखडी जीमनवार, मृत्युभोज, करने लायक है, चोर वध करने लायक है, नदी सुखपूर्वक उतरने योग्य है। ऐसा साधु न कहे ||३६|| प्रयोजनवश कहना पड़े तो संखडी को संखडी कहे, चोर को धन हेतु जीवन श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 116
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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