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________________ भूतोपघातिनी भाषां, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ।।२९।। भावार्थ : उद्यान में, पर्वत पर, वन में, प्रयोजनवश जाने पर प्रज्ञावान् मुनि बड़े वृक्षों को देखकर ऐसा न कहे कि ये वृक्ष प्रासाद बनाने में, स्तंभ में, नगरद्वार में, घर बनाने में, परिघ में (नगर द्वार की आगल) अर्गला (गृहद्वार की आगल) नौका बनाने में, उदक द्रोणी (रेंट को-जल को धारण करने वाली काष्ठ की बनावट) आदि बनाने लायक है। इसी प्रकार ये वृक्ष, पीठ के लिए (पटिये के लिए) काष्ठ पात्र के लिए, हल के लिए, मयिक बोये हुए खेत को सम करने हेतु उपयोग में आनेवाला कृषि का एक उपकरण, कोल्हू यंत्र की लकड़ी (नाडी) नाभि पहिये का मध्य भाग, अहरन के लिए समर्थ है। इन वृक्षों में कुर्सी, खाट, पलंग, रथ आदि यान, या उपाश्रय उपयोगी काष्ठ है। इस प्रकार पूर्वोक्त सभी प्रकार की भाषा वनस्पतिकाय की एवं उसके आश्रय में रहनेवाले अनेक प्राणियों की घातक होने से प्रज्ञावान् मुनि ऐसी भाषा न बोले ।।२६२९॥ तहेव गंतुमुज्जाणं, पव्वयाणि वणाणि | रुक्खा महल्ल पेहार, एवं भासिज्ज पन्लवं ||३०।। जाइमंता इमे रुक्खा , दीहवट्टा महालया। पयायसाला विडिमा, वए दरिसणि ति अ ||३१|| तहा फलाइंपलाइं, पायखज्जाइं नो वए। वेलोइयाइं टालाइं, वेहिमाइं ति नो वए ||३२|| असंथडा इमे अंबा, बहुनिव्वडिमा फला। . • वइन्ज बहु संभूआ, भूअरूव ति वा पुणो ।।३३।। सं.छा. तथैव गत्वोद्यानं पर्वतान् वनानि च। . वृक्षान् महतो प्रेक्ष्य, एवं भाषेत प्रज्ञावान्।।३०।। जातिमन्त एते वृक्षा, दीर्घवृत्ता महालयाः । प्रजातशाखा विटपिनः, वदेदर्शनीया इति च ॥३१।। तथा फलानि पक्वानि पाकखाद्यानि नो वदेत् । वेलोचित्तानि टालानि, द्वैधिकानीति नो वदेत् ।।३२।। असमर्था एते आम्राः, बहुनिवर्तितफलाः । वदे बहुसम्भूताः, भूतरूपा इति वा पुनः ।।३३।। भावार्थ ः उद्यान, पर्वत, और वन में या वन की ओर जाते हुए बड़े वृक्षों को देखकर प्रयोजनवश बुद्धिमान् साधु इस प्रकार बोले कि- ये वृक्ष उत्तम जातिवंत है,दीर्घ,गोल, अतीव विस्तार युक्त है, विशेष शाखाओं से युक्त है, प्रशाखायुक्त है, दर्शनीय है ।।३० श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 115
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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