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अच्छा हुआ, यह कन्या अत्यंत सुंदर है या चाँवल आदि अच्छे हैं। ऐसे सावध वचन साधु न बोले ।।४१।।
पयत्तपक्के (क)त्ति व पक्कमालवे,
___ पयत्तछिन्न ति व छिन्नमालवे। पयनलठ्ठि (8)त्ति व कम्महेउअं,
... पहारगाढ ति व गाढमालवे ।।४।। सं.छा.ः प्रयत्नपक्वमिति वा पक्वमालपेत्,
__ प्रयत्नच्छिन्नमिति वा छिन्नमालपेद्। प्रयत्नलष्टेति वा कर्महेतुकं,
प्रहारगाढमिति वा गाढमालपेद् ॥४२॥ भावार्थ : प्रयोजनवश कहना हो तो, सुपक्व को प्रयत्नपूर्वक पका हुआ, सुछिन्न को प्रयत्नपूर्वक छेदा हुआ, सुंदर कन्या को दीक्षा देने में आवे तो प्रयत्नपूर्वक पालन करना पडे, सर्वकृतादि क्रिया कर्म हेतुक है, गाढ प्रहार युक्त व्यक्ति को देखकर इसे गाढ प्रहार . लगा है इस प्रकार यतना युक्त साधु बोले जिससे अप्रीति आदि दोष उत्पन्न न हो।।२।।
सव्वुकसं परग्घं वा, अउलं नदिथ 'एरिसं।
अविकिअमवत्तव्वं, अविअत्तं चेव नो वप्ट ||४३॥ सं.छा.ः सर्वोत्कृष्टं परार्धं वा, अतुलं नास्तीदृशम् ।
असंस्कृतमवक्तव्यं, अप्रीतिकरं चैव नो वदेत् ॥४३।। भावार्थ : क्रय, विक्रय आदि व्यवहारिक कार्य में कोई पूछे तो या बिना पूछे, यह पदार्थ सर्वोत्कृष्ट है निसर्गतः सुंदर है, महामूल्यवान है, इसके जैसा दूसरा पदार्थ नहीं है, यह पदार्थ सुलभ है, अनंत गुण युक्त है, अप्रीति कारक है। इस प्रकार साधु न बोले ऐसे वक्तव्य से अधिकरण, अंतराय आदि दोषों की उत्पत्ति होती है ।।४३।। ।
सव्वमेअं वइस्सामि, सव्वमेअं ति नो वए।
अणुवीई सव्वं सव्वत्थ, एवं भासिज्ज पन्नवं ॥४४|| सं.छा.ः सर्वमेतद्वक्ष्यामि, सर्वमेतदिति नो वदेत्।
__ अनुचिन्त्य सर्वं सर्वत्र, एवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥४४॥ भावार्थ : संदेशों के देने के समय में मैं सर्व कहूंगा या ऐसा ही उन्होंने कहा था ऐसा न कहें। सभी स्थानों पर मृषावाद का दोष न लगे इसका पूर्ण विचारकर बुद्धिमान् साधु भाषा का प्रयोग करें।।४४।। क्रय-विक्रय के विषय में :
सुक्कीअं वा सुविक्कीअं, अकिज्जं किज्जमेव वा।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 118