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________________ (असंथडा) असमर्थ (बहुनिव्वडिमा फला) बहुनिवर्तित (प्रायः निष्पन्न) फल वाले है, गुठलीयुक्त फल है (वइज्ज) बोले (बहुसंभूआ) बहुसंभूत/एक साथ उत्पन्न हुए बहुत फलवालें (भूअरुप) भूतरूप / कोमल, बिना गुठली के ||३३|| (ओसहिओ ) औषधियाँ, डांगर आदि अनाज (नीलिआओ छवीइ) वाल, चौला, कठोल (लाइमा). काटने योग्य (भज्जिमाओ) भूनने योग्य (पिहुखज्ज) चिड़वा बनाकर खाने योग्य ।।३४।। (रुढा) अंकुरित (बहुसंभूआ) निष्पन्न प्रायः (थिरा) स्थिर, (ओसढा) ऊपर उठी हुई (गब्भिआओ) भूट्टों से रहित है (पसूआओ) भूट्टों से सहित है (ससाराङ) धान्य-कण सहित है ।।३५|| ( संखडिं) जीमनवार ( वज्झित्ति) वध करने योग्य (किच्चं ) काम, कृत्य (कज्जं ) करने येग्य ( सुतित्थि ) सुखपूर्वक तैरने योग्य (त्ति) ऐसा (आवगा) नदियाँ ।।३६।। (पणिअहं) पणितार्थ, धन के लिए जान की बाजी लगानेवाला ( समाणि) सरिखे, समान (तित्थाणि) पार करने का मार्ग (विआगरे) कहे ||३७| (पुण्णाओ) पूर्ण भरी हुई (कायत्तिज्ज) शरीर से तैरने योग्य (पाणिपिज्ज) प्राणीयों को. जल पीने योग्य ||३८|| ( बहुवाहडा) प्रायः भरी हुई ( अगाहां) अगाध (बहुसलिलुप्पिलोदगा) दूसरी नदीयों के प्रवाह को पीछे हटाने वाली (बहुवित्थडोदगा) पानी से अधिक विस्तारवाली ||३९|| (निट्ठिअं) पूर्व में हो गये (किरमाणं) हो रहा है, किया जा रहा है ।।४०।। (सुहडे) अच्छी प्रकार हरण किया है (मडे) मर गया (सुनिट्ठिए) अच्छी प्रकार नष्ट हुआ (सुलट्ठित्ति) सुंदर ॥ ४१ ॥ (पयत्त) प्रयत्न से (पयत्तलट्ठ) दीक्षा ले तो इस सुंदर कन्या का रक्षण करना (कम्महेउअं) कर्म है जिसका हेतु (पहारगाढ) गाढं प्रहार लगा हुआ ।।४२।। (परग्घं) अधिक मूल्यवान (अउलं) अतुल (अविक्किअं) इसके समान दूसरी वस्तु नहीं (अविअत्तं) अप्रीतिउत्पन्नकारक ||४३|| (अणुवीइ) विचारकर ।।४४।। (पणीयं) करीयाणा ।।४५।। (पणिअट्टे) किराणा का पदार्थ (समुप्पन्ने) प्रश्न हो जाने पर ।।४६।। (आस) बैठे (एहि ) आओ (वयाहि) उस स्थान पर जाओ ।।४७।। (वुग्गहे) संग्राम में ।।५०॥ (वाओं) पवन (वुडं) वर्षा ( घायं) सुकाल (सिवं ) उपद्रवरहित ।।५१।। (समुच्छिए) उमड़ रहा है (ऊन्नअं) उन्नत हो रहा है (पओए) मेघ (बलाहये) मेघ ।।५२।। (गुज्झाणुचरिअ) देव द्वारा सेवित (दिस्स) देखकर ।।५३।। (ओहारिणी) निश्चयात्मक (माणवो) साधु ।।५४।। (अणुवीइ) विचारकर (सयाणमज्जे) सत्पुरुषों में ।।५५।। (सामणिए) श्रमणभाव में (जए) उद्यमवंत (हिअमाणुलोमिअं) हितकारी, मधुर, अनुकूल ॥५६॥ (निद्धुणे ) दूरकर ( धुण्णमलं) पापमल (लोगमिणं) इस लोक में (तहा परं) उसी प्रकार परलोक में ||५७॥ भाषा के प्रकार एवं स्वरूप - चन्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पद्मवं । दुहं तु विणयं सिक्खे, दो न भासिज्ज सव्वसो || १ || जा अ सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा अ जा मुसा । श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 108
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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