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________________ जा अ बुद्धेहिं नाइला, न तं भासिज्ज पल्लवं ||२|| असच्चमोसं सच्चं च, अणवज्जमककसं। समुप्पेहमसंदिद्धं, गिरं भासिज्ज पन्लव।।३।। सं.छा.: चतसणां खलु भाषाणां, परिसंख्याय प्रज्ञावान्। द्वाभ्यां तु विनयं शिक्षेत, द्वे न भाषेत सर्वशः ।।१।। या च सत्या अवक्तव्या, सत्यामृषा च या मृषा। या च बुद्धैरनाचरिता, नैनां भाषेत प्रज्ञावान् ।।२।। असत्यामृषां सत्यां च, अनवद्यामकर्कशाम्। सम्प्रेक्ष्यासन्दिग्धां, गिरं भाषेत प्रज्ञावान् ।।३।। भावार्थ : प्रज्ञावान् श्रमण चारों भाषाओं के स्वरूप को ज्ञातकर दो भाषाओं को निर्दोष जानकर शुद्ध प्रयोग करना सीखे। निर्दोष दो भाषा का उपयोग करें। दो का सर्वथा त्याग करें। भाषा के चार भेद हैं , सत्य', असत्य', सत्यामृषा (मिश्र) कुछ सत्य कुछ असत्य असत्यामृषा व्यवहार भाषा न सत्य न असत्य। इन चार भाषाओं में सत्य भी सावद्य पापकारी हो तो न बोलें, पर पीड़ाकर सत्य भी न बोलें, मिश्र भाषा एवं असत्य भाषा ये दो भाषा तो सर्वथा न बोलें क्योंकि तीर्थंकरों के द्वारा अनाचीर्ण है चतर्थ व्यवहारभाषा भी अयोग्य रीति से न बोलें, योग्य प्रकार से बोले। कौन-सी भाषा बोलना उसका स्वरूप दर्शाते हुए कहा है कि - प्रज्ञावान् मुनि व्यवहार भाषा एवं सत्यभाषा जो निर्दोष, कठोरता रहित, स्व-पर उपकारी और संदेह रहित शंकारहित हो वह बोले ।।१-३॥ . मोक्ष मार्ग में प्रतिकुल भाषा का त्याग : एंअं च अट्ठमन्नं वा, जंतु नामेइ सासयं। स भासं सच्चमोसंपि, तंपि धीरो विवज्जए ||४|| वितहंपि तहामुत्तिं, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुणं जो मुसं वर? ||५|| सं.छा.ः एतं चार्थमन्यं वा, यस्तु नामयति शाश्वतम्। स भाषां सत्यामृषामपि, तामपि धीरो विवर्जयेद् ।।४।। वितथमपि तथामूर्ति, यां गिरं भाषते नरः। तस्मादसौ स्पृष्टः पापेन, किं पुनर्यो मृषा वक्ति ।।५।। 'भावार्थ : पूर्व में निषिध भाषा सावद्य एवं कठोर भाषा और उसके जैसी दूसरी भी भाषा जो मोक्ष मार्ग में प्रतिकुल है ऐसी व्यवहार एवं सत्य भाषा भी बुद्धिमान् धैर्य युक्त मुनि न बोले ॥४॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 109
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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