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देता। विभूषा ब्रह्मचर्य व्रत के लिए तालपूट विष समान है। उज्ज्वल वस्त्र परिधान एक प्रकार की विभूषा है। आर्द्र वस्त्र से अंग स्वच्छ करना विभूषा है। आचार पालन का फल :
खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमअज्जवे गुणे। धुणंति पावाइं पुरेकडाई, नवाइं पावाइं न ते करंति ||६८।। सओवसंता अममा अकिंचणा,
सविज्जविज्जाणुगया जसंसिणो। उउप्पसन्ने विमलेव चंदिमा,
सिद्धिं विमाणाई उवेंति ताइणो ||६९|| ति बेमिश :
छठं धम्मत्थकामज्झयणं समत्तं ।। .. सं.छा.ः क्षपयन्त्यात्मानममोहदर्शिनः, तपसि रताः संयमार्जवगुणे।
धुन्वन्ति पापानि पुराकृतानि, नवानि पापानि न ते कुर्वन्ति ।।६८।। . सदोपशान्ता अममा अकिञ्चनाः,
स्वविद्यविद्यानुगता यशस्विनः।.. . ऋतौ प्रसन्ने विमल इव चन्द्रमाः, . . .
सिद्धिं विमानान्युपयान्ति तायिनः ।।६९।। इति ब्रवीमि ।।
षष्ठं धर्मार्थकामाध्ययनं समाप्तम् ।। . . भावार्थ : अमोहदर्शी, तप, संयम, ऋजुतादि गुण में रक्त मुनि, आत्मा को शुद्ध विशुद्ध करते हुए पूर्वसंचित कर्मों को खपाते हैं। नये अशुभ कर्मों का बंध नहीं करते।
नित्य उपशांत, ममतारहित, परिग्रह रहित, परलोकोपकारिणी आत्मविद्या सहित, यशस्वी, शरद ऋतु के चंद्र सम निर्मल-भावमलरहित और स्व पर रक्षक उपर दर्शित आचार पालक मुनि मोक्ष में जाते हैं। अगर कर्मशेष रहे तो वे वैमानिक देव लोक में जाते हैं ।।६८-६९।।
श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते हैं कि - हे मनक! ऐसा मैं अपनी बुद्धि से नहीं किन्तु तीर्थंकर गणधर आदि महर्षियों के उपदेश से कहता हूँ।
७ सुवाक्यशुद्धिनामकं सप्तमं अध्ययनम् संबंध : छठे अध्ययन में महाचार (साध्वाचार) का वर्णन किया। साध्वाचार के वर्णन में भाषा का प्रयोग अनिवार्य है। भाषा के सदोष एवं निर्दोष दो भेद हैं। मुनि सतत निरंतर निरवद्य भाषा का (निर्दोष भाषा का) प्रयोग करता है। अतः सप्तम अध्ययन में भाषा शुद्धि हेतु प्ररूपणा की है।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 106