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भावार्थ : जो साधु व्याधिग्रस्त रोगी या निरोग स्वस्थ है, और वह स्नान करने की इच्छा करता है, तो उसके आचार का उल्लंघन होता है एवं वह संयम से भ्रष्ट होता है। स्नान से जीवविराधना का स्वरूप दर्शाते हैं। पोली भूमि एवं दरार युक्त भूमि में सूक्ष्म जीव रहते हैं। अचित्त जल से स्नान करने से वे जीव प्लावित होते हैं। उन जीवों को पीड़ा होती है। इसी कारण से शीत या उष्ण जल से मुनि स्नान नहीं करते पर जीवनपर्यंत स्नान न करने रूप दुष्कर व्रत का आश्रय करते हैं। और स्नान या चंदनादि लेप, लोध्र, केसर आदि विशेष सुगंधित द्रव्यों से उबटन आदि नहीं करते। यह सतरवाँ संयम स्थान है ।।६१-६४।।
व्याधिग्रस्त मुनि को भी स्नान न करने का विधानकर अस्नान व्रत की महत्ता स्पष्ट की है। वर्तमान में अस्नान व्रत में जो दरारें गिर रही हैं, उस पर श्रमण संघ को चिंतन करना आवश्यक है।
अष्टादशम स्थान 'विभूषा वर्जन' :
नगिणस्स वावि मुंडस्स, दीहरोमनहंसिणो । मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाइ कारिअं ॥६५॥ विभूसावत्तिअं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिकणं। संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे || ६६ ॥ विभूसावत्तिअं चेअं, बुद्धा मन्नंति तारिसं । सावज्जबहुलं चेअं, नेअं ताईहिं सेविअं ॥ ६७॥ •.सं. छा.: नग्नस्य वापि मुण्डस्य, दीर्घरोमनखवतः (खांशिनः ) । मैथुनादुपशान्तस्य, किं विभूषया कार्यम् ॥६५॥ विभूषाप्रत्ययं भिक्षुः, कर्म्म बध्नाति चिक्कणम्। संसारसागरे घोरे, येन पतति दुरुत्तरे ॥ ६६ ॥ विभूषाप्रत्ययं चेतः, बुद्धा मन्यन्ते तादृशम् ।
सावद्यबहुलं चैतद् नैतत् तायिभिः सेवितम् ॥६७॥
भावार्थ: : नग्न, मुंड, दीर्घरोम एवं नख युक्त जिन कल्पि मुनि, प्रमाणोपेत वस्त्रयुक्त आदि स्थविर कल्पि मुनि मैथुन से उपशांत होने से उन्हें विभूषा का क्या प्रयोजन ?
जो लोग मुनिवेश में विभूषा करते हैं वे विभूषा के निमित्त से दारुण कर्म का बंध करते हैं। जिससे दुस्तर संसार सागर में गिरते हैं।
विभूषा करने के विचार को भी तीर्थंकर गणधर भगवंत विभूषा जैसा मानते ..हैं । इसलिए आर्त्त ध्यान द्वारा अत्यधिकपापयुक्तचित्त आत्मारामी मुनिओं द्वारा आसेवित नहीं है। यह अठारवाँ संयम स्थान है ।। ६५- ६७॥
प्रायः जीर्ण वस्त्र परिधान कर्ता मुनि विभूषा का विचार ही उत्पन्न होने नहीं
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 105