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________________ अगुप्तिर्ब्रह्मचर्यस्य, स्त्रीतश्चापि शङ्कनम्। कुशीलवर्धनं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेद् ।।५९।। । त्रयाणामन्यतरस्य,निषद्या यस्य कल्पते। जरयाऽभिभूतस्य, व्याधितस्य तपस्विनः ।।६०।। भावार्थ : गोचरी गया हुआ श्रमण गृहस्थ के घर बैठता है तो आगे कहे जानेवाले मिथ्यात्वोत्पादक अनाचार की प्राप्ति होती है।।५७।।। ब्रह्मचर्य का नाश, परिचय की वृद्धि से आधाकर्मादि आहार से भक्ति के प्रसंग में प्राणीवध,भिक्षुकों को अंतराय, गृहस्थको कभी क्रोध उत्पन्न हो जाय, ब्रह्मचर्य व्रत का भंग हो, गृहस्वामी को अपनी स्त्री पर शंका उत्पन्न हो, इस कारण से कुशीलवर्द्धक स्थानों का मुनि को दूर से त्याग करना चाहिए ।।५८-५९।। ___ अपवाद मार्ग दर्शाते हुए सूत्रकार श्री ने कहा है कि निम्न तीन प्रकार के श्रमणों को कारण से बैठना कल्पता है। । । (१) जराग्रस्त अति वृद्ध, (२) व्याधिग्रस्त रोगी, (३) तपस्वी उत्कृष्टतपकारक। ये तीनों गोचरी गये हों और थकान के कारण बैठना पड़े तो बैठ सकते हैं।.यह सोलहवाँ संयम स्थान है ।।६।। सप्तदशम स्थान 'स्नान वर्जन' : वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थर। वुकंतो होड़ आयारो, जढो हवइ संजमो ||६१|| संतिमे सुहुमा पाणा, घसासु भिलुगासु । जे अ भिक्ख सिणायंतो, विअडेणुप्पलावष्ट ||६२।। तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा। जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाणमहिठ्ठगा ||६३॥ सिणाणं अदुवा कई, लुद्धं पउमगाणि | गायस्सुव्वट्टणट्ठार, नायरंति कयाइवि ||६४|| सं.छा.: व्याधितो वा ऽरोगी वा, स्नानं यस्तु प्रार्थयते। व्युत्क्रान्तो भवत्याचारः, त्यक्तो भवति संयमः ।।६१।। सन्त्येते सूक्ष्माः प्राणिनः, घसासु भिलुगासु च। यांश्च भिक्षुः स्नान्, विकृतेनोत्प्लावयति ।।६२।। तस्मात्ते न स्नान्ति, शीतेनोष्णेन वा। यावज्जीवं व्रतं घोरं, अस्नानमधिष्ठातारः ।।६३।। स्नानमथवा कल्कं, लोधं पद्मकानि च। गात्रस्योद्वर्त्तनार्थं, नाचरन्ति कदाचिदपि ।।६४।। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 104
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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