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तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं, दुर्गतिवर्धनम्।
त्रसकायसमारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेद् ।।४६।। भावार्थ : सुसमाहित श्रमण मन, वचन, काया रूप तीन योग कृत कारित अनुमोदित रूप तीन करण से त्रसकाय की हिंसा नहीं करते। त्रसकाय का विराधक अन्य दृश्य अदृश्य जीवों की विराधना करता है।
दुर्गतिवर्द्धक दोषों को जानकर जीवनपर्यन्त तक श्रमण त्रसकाय के आरंभका त्याग करे यह द्वादशम संयम स्थान है ।।४४-४६।। त्रयोदशम स्थान 'अकल्पनीय का त्याग' :
जाइं चत्तारि भुज्जाइं, इसिणाऽऽहारमाइणि| ताई तु विवज्जतो, संजमं अणुपालए ।।४७|| पिंडं सिज्जं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य| अकप्पिअं न इच्छिज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पिअं ।।४८| जे नियागं ममायंति, कीअमुद्देसिआहडं। वहं ते समगुंजाणंति, इइ वुत्तं महेसिणा ||४९।। तम्हा असणपाणाइं, कीअमुद्देसिआहडं।
वज्जयंति ठिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ।।५०॥ सं.छा.: यानि चत्वार्यभोज्यानि, ऋषीणामाहारादीनि।
तानि तु विवर्जयन्, संयममनुपालयेद् ।।४७।। पिण्डं शय्यां च वस्त्रं च, चतुर्थं पात्रमेव च। अकल्पिकं नेच्छेत्, प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकम् ॥४८।। ये नियागं परिगृह्णन्ति, क्रीतमौद्देशिकाहतम्। वधं ते समनुजानन्ति, इत्युक्तं च महर्षिणा ।।४९।।
तस्मादशनपानादि, क्रीतमौद्देशिकाहृतम्। .. वर्जयन्ति स्थितात्मानो, निर्ग्रन्था धर्मजीविनः ।।५०।। भावार्थ : ऋषि-मुनि, जो आहारादि चार अकल्पनीय है उसका, त्याग करते हुए संयम का पालन करे।
- पिंड, शय्या, वस्त्र एवं चतुर्थ पात्र चारों में से जो कल्पनीय हो, वह ग्रहण करे, अकल्पनीय का त्याग करें।
जो श्रमण/ऋषि नित्य/नियमित/निमंत्रित आहार, साधु के निमित्त कृत, औद्देशिक, घर से या ग्राम से सामने लाया हुआ आहारादि ग्रहण करें तो बनाने, लाने में जो विराधना हुई उसकी अनुमोदना साधु करता है। ऐसा महान् ऋषि श्री महावीर परमात्मा ने कहा है।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् – 101