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की उदीरणा नहीं करते पर जयणापूर्वक वस्त्रपात्रादि का परिभोग करते हैं।
दुर्गतिवर्द्धक दोषों को जानकर मुनि भगवंत वाउकाय के समारंभ का त्याग करते हैं। यह दशम संयम स्थान है।।३७-४०।। एकादशम संयम स्थान 'वनस्पतिकाय की जयणा' :
वणस्सइं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ||४१।। वणस्सइं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ||४२।। तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं|...
वणस्सइन्समारंभ, जावजीवाइ वज्जए ||४३|| सं.छा.: वनस्पतिं न हिंसन्ति, मनसा वाचा कायेन।
त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः ।।४।। वनस्पतिं विहिंसन्, हिनस्त्येव तदाश्रितान्। त्रसांश्च विविधान् प्राणिनः, चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ।।४२।। तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्धनम्। .
वनस्पतिसमारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेद् ॥४३।। भावार्थ : सुसमाहित श्रमण मन, वचन, काया रूप तीन योग कृत, कारित, अनुमोदित रूप तीन करण से वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते। वनस्पति का विराधक दृश्य अदृश्य त्रस एवं दूसरे प्राणियों की हिंसा करता है।
___अतः दुर्गतिवर्द्धक दोषों को जानकर जीवन पर्यंत वनस्पतिकाय के आरंभ का मुनि त्याग करे यह एकादशम संयम स्थान है ।।४१-४३।। द्वादशम् संयम स्थान 'त्रसकाय की जयणा' :
तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ||४४|| तन्सकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ||४५|| तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं ।
तसकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जर ||४६|| सं.छा. त्रसकायं न हिंसन्ति, मनसा, वाचा कायेन।
त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः ।।४४।। त्रसकायं विहिंसन्, हिनस्त्येव तदाश्रितान्। त्रसांश्च विविधान् प्राणिनः, चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ।।४५।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 100 .