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________________ कारण से साधु दीपक के लिए या ताप के लिए किंचित् मात्र भी उसका आरंभ नहीं करते। ___ दुर्तिवर्द्धक अग्नि से उत्पन्न दोषोंको ज्ञातकर साधु जावज्जीव तक अग्निकाय के आरंभ का त्याग करें यह नवम संयम स्थान है ।।३३-३६।। आगमकारों ने अग्नि को दीर्घकाय शस्त्र, सर्वभक्षी तीक्ष्ण शस्त्र आदि उपमाओं से संबोधितकर इसका मनमाने अपवादों को महत्त्व देकर उपयोग करनेवालों को सूचित किया है कि आप श्रमण लोग जो कुछ भी तप, जप, आचार पालन शासन सेवा आदि के द्वारा पुण्योपार्जन करते हो उसे क्षण भर में अग्नि का आरंभ जलाकर भस्म कर देगा। दशम स्थान 'वाउकाय जयणा' : अणिलस्स समारंभ, बुद्धा मन्नंति तारिसं। सावज्जबहलं चेअं, नेअंताईहिंसेविअं ||३७|| तालिअंटेण पत्तेण, साहाविहुअणेण वा। न ते वीइउमिच्छति, वेआवेऊण वा परं ||३८|| जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं| न ते वायमुईरंति, जयं परिहरंति अ ||३९|| तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं। वाउकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जए ||४०।। सं.छा.: अनिलस्य समारम्भं, बुद्धा मन्यन्ते तादृशम्। सावद्यबहुलं चैतं, नैनं तायिभिः सेवितम् ।।३७।। । तालंवृन्तेन पत्रेण, शाखाविधूननेन वा। न ते वीजितुमिच्छन्ति, वीजयन्ति (यितुं) वा परैः ।।३८॥ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादपुञ्छनम्। न ते वातमुदीरयन्ति, यतं परिहरन्ति च ।।३९।। तस्मादेत विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्धनम्। वायुकायसमारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेद् ।।४०।। भावार्थ : तीर्थंकर भगवंत वाउकाय के आरंभ को अग्नि के आरंभ जैसा मानते हैं अतः अधिक पापार्जन करवानेवाले वायुकाय केआरंभ का सेवन नहीं करते। .. ताड़ के पंखे से, पत्ते को, शाखा को, हिलाकर आदि किसी भी प्रकार से मुनि हवा नहीं लेते। दूसरे को हवा करने हेतु नहीं कहते एवं करनेवाले की अनुमोदना नहीं करते। ... वस्त्र, पात्र,कंबल, रजोहरण, पादपोंछन आदि धर्मोपकरण के द्वारा मुनि वायु श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 99
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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