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________________ त्रसांश्च विविधान् प्राणिनः, चाक्षुषांश्चाचाक्षुषांश्च ।।३१।। तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्धनम्। अप्कायसमारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेद् ।।३२।। भावार्थः सुसमाहित साधु भगवंत अप्काय की हिंसा मन-वचन-काया से करते नहीं, कराते नहीं, करनेवाले की अनुमोदना नहीं करते। अप्काय की हिंसा के समय उनकी निश्रा के अनेक चक्षु से दृश्य, अदृश्य त्रस स्थावर जीवों की हिंसा होती है। ऐसे दुर्गति वर्द्धक दोषों के कारण अप्काय के समारंभ का त्याग जीवन पर्यंत करना, यह अष्टम संयम स्थान है ।।३०-३२।। नवम स्थान 'अग्निकाय जयणा' : जायतेअं न इच्छंति, पावगं जलइत्तए। तिक्खमल्लयरं सत्थं, सव्वओऽवि दुरासयं ।।३३॥ पाईणं पडिणं वावि, उड्ढे अणुदिसामवि। अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओवि अ ||३४|| . भूआणमेसमाघाओ, हव्ववाहो न संसओ। तं पईवपयावठ्ठा, संजया किंचि नारभे ||३५|| तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं| तेउकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जप्ट ||३६|| सं.छा.: जाततेजसं नेच्छन्ति, पापकं ज्वालयितुम्। तीक्ष्णमन्यतरत् शस्त्रं, सर्वतोऽपि दुराश्रयम् ।।३३।। प्राच्या प्रतीच्यां वापि, ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि। . , अधोदक्षिणतो वापि, दहत्युत्तरतोऽपि च ।।३४।। भूतानामेष आघातो, हव्यवाहो न संशयः। तं प्रदीपप्रतापार्थं, संयताः किञ्चिन्नारभन्ते ।।३५।। . तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्धनम्। तेजःकायसमारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेद् ।।३६।। भावार्थ : पापरूप तीक्ष्ण और चारों ओर से धारयुक्त शस्त्र जैसा होने से, सभी प्रकार से दुःखपूर्वक आश्रय लिया जा सके ऐसा अनेक जीवों का संहारक शस्त्र ऐसे पापकारी अग्नि का आरंभ अर्थात् अग्नि को प्रज्वलित करना नहीं चाहते। (जाततेज - उत्पन्न समय से तेजस्वी) पूर्व, पश्चिम, उर्ध्व, अधो, विदिशाओं, दक्षिण, उत्तर में अर्थात् सभी दिशाओं में अग्नि दाह्य पदार्थ को जला देती है। यह अग्नि सभी प्राणिओं का घात करने वाली है इसमें कोई संशय नहीं। इस श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 98
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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