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________________ में दोष सेवन न करना पड़े। दोष सेवनकर तप करना जिनाज्ञा विरूद्ध है। आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार खाकर तप करने की अपेक्षा नित्य निर्दोष गोचरी से एकासन का तप कराना जिनाज्ञा की आराधना है। सप्तम स्थान 'पृथ्वीकाय की जयणा' : पुढविकायं न हिंन्संति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ||२७|| पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसइ उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ।।२८|| तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं| पुढविकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जए ||२९|| सं.छा.: पृथ्वीकायं न हिंसन्ति, मनसा वाचा कायेन। त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः ।।२७।। पृथिवीकार्यवि हिंसन्, हिनस्त्येव तदाश्रितान्। त्रसांश्च विविधान् प्राणिनः, चाक्षुषांश्चाचाक्षुषांश्च ।।२८।। तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्धनम्। पृथिवीकायसमारम्भ, यावज्जीवं वर्जयेद् ।।२९।। भावार्थ : सुसमाहितं साधु भगवंत पृथ्वीकाय की मन-वचन-काया से हिंसा करते : नहीं, करवाते नहीं, करनेवाले की अनुमोदना नहीं करते। पृथ्वी काय की हिंसा करते समय उसकी निश्रा में रहे.हुए त्रस जीव और दूसरे भी विविध प्राणिओं की जो चक्षु से दृश्य, अदृश्य हैं उसकी हिंसा हो जाती है। पृथ्वीकाय की हिंसा में दूसरे प्राणिओं की हिंसा भी होती है यह दोष दुर्गतिवर्द्धक होने से पृथ्वीकाय के समारंभ का त्याग जांवन्जीव तक करना, यह सप्तम संयम स्थान है ।।२७-२९।। अष्टम स्थान 'अप्काय की जयणा' : आउ कायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिआ ||३०।। आउकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ||३१|| तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं| आउकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जए ||३२|| : सं.छा.: अप्कायं न हिंसन्ति, मनसा वाचाकायेन। त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः ॥३०॥ अप्कार्यवि हिंसन्, हिनस्त्येव तदाश्रितान्। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 97
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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