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औषधादि का संग्रह ममत्व भाव पूर्वक है वहां-वहां भाव साधुता नहीं है, गृहस्थभाव है । वह वेश से मुनि है भाव से गृहस्थ है। षष्ठम् स्थान 'रात्रिभोजन त्याग' :
अहो निच्चं तवो क्रम्मं, सव्वबुद्धेहिं वण्णिअं । जाय लज्जासमावित्ती, एगभत्तं च भोअणं ॥ २३ ॥ संति सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाई राओ अपासंतो, कहमेसणीयं? चरे ||२४|| उदउल्लं बीअसंसतं, पाणा निवडिया महिं । • दिआ ताइं विवज्जिज्जा, राओ तत्थ कहं चरे? ॥ २५ ॥ एअं च दोसं दट्ठूणं, नायपुत्त्रेण भासिअं । सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोअणं ||२६|| सं.छा.ः अहो नित्यं तपः कर्म, सर्वबुद्धैर्वर्णितम् ।
या य ल्लज्जासमा वृत्तिः, एकभक्तं च भोजनम्॥२३॥ सन्त्येते सूक्ष्माः प्राणिनः, त्रसा अथवा स्थावराः। यान् रात्रावपश्यन्, कथमेषणीयं चरेद् ||२४|| उदकार्द्रं बीजसंसक्तं, प्राणिनो निपतिता मह्याम् । दिवा तानि विवर्जयेद्, रात्रौ तत्र कथं चरेद् ? ।।२५।। एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम्। सर्वाहारं न भुञ्जते, निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम् ॥२६॥ भावार्थ : संयम पालन में बाधा न आवे उस रीति से देह पोषण युक्तं नित्य-अप्रतिपाती तपःकर्म सभी तीर्थंकर भगवंतों ने कहा हुआ है और एक बार भोजन / गोचरी करने का कहा है ॥२३॥
प्रत्यक्ष दिखायी देने वाले दो इंद्रियादि त्रस, पृथ्वी आदि स्थावर प्राणी हैं। जो रात में चक्षु से देखने में नहीं आते। वे दृष्टि गोचर न होने से रात्रि को निर्दोष गोचरी के लिए कैसे फिरेंगे? किस प्रकार आहार करेंगे ? रात्रि को गोचरी हेतु जाने में एवं वापरने प्राणीओं का घात होता है ।। २४ ।।
रात को गोचरी जाते समय आहार सचित्त जल से भीगा हुआ हो या बीजादि मिश्र और मार्ग / राह में संपातिम प्राणी रहे हुए हो तो दिन में तो उनका त्याग किया जा सकता है, पर रात को उसका त्याग कर, कैसे चल सके ? ।।२५।।
इस प्रकार अनेक दोषों को देखकर ज्ञातपुत्र श्री महावीर परमात्मा ने कहा कि- श्रमणों को चारों प्रकार के आहार का रात को सर्वथा त्याग करना चाहिए ||२६|| श्रमण भगवंत को तप वही करने का कहा है जिस तप से संयम धर्म पालन
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 96