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इस कारण से अशनपानादि कृत, औद्देशिक एवं आहत का त्याग होता है। सत्त्वयुक्त संयम रूप जीवन युक्त महामुनि के लिए यह है त्रयोदशम संयमस्थान ।।४७५०॥ चतुर्दशम संयम स्थान 'गृहस्थ भाजन का त्याग' :
कंसेसु कंसपारसु, कुंडमोएसु वा पुणो। भुंजतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ।।५१|| सीओदगन्समारंभे, मत्त-धोअण-छहुणे। जाइं छन्नंति (छिप्पंति) भूआई, दिठ्ठो तत्थ असंजमो।।५२।। पच्छाकम्म परेकम्म, सिया तत्थ न कप्पड़।
एअमटुं न भुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे ||५३|| सं.छा.ः कंसेषु कंसपात्रेषु, कुण्डमोदेषु वा पुनः।
भुञ्जानोऽशनपानाद्याचारात्परिभ्रश्यति ।।५१।। शीतोदकसमारम्भे, मात्रकधावनोज्झने। यानि क्षिप्यन्ते भूतानि, दृष्टस्तत्रासंयमः ।।५२।। पश्चात्कर्म पुरःकर्म, स्यात्तत्र न कल्पते। .
एतदर्थं न भुञ्जते, निर्ग्रन्था गृहिभाजने ।।५३।। , भावार्थ : कांसे के प्याले, कांसे के पात्र एवं मिट्टी के कुंड मोद आदि गृहस्थ के बर्तन में अशन पानी आदि वापरने से श्रमण आचार से परिभ्रष्ट होता है। सूत्रकार श्री ने कारण दर्शाते हुए कहा है कि - साधु के निमित्त से सचित्त पानी से बर्तन धोने का आरंभ एवं वापरने के बाद पात्र धोकर पानी फेंक देने से पानी आदि अनेक जीवों का घात होता है ज्ञानियों ने उसमें असंयम देखा है।।
गृहस्थ के बर्तनों में भोजन करने से पूर्व कर्म एवं पश्चात् कर्म की संभावना है ऐसे दोष के कारण निग्रंथ ऋषि, मुनि गृहस्थ के पात्र में आहार नहीं करते। यह चतुर्दशम संयम स्थान है ।।५१-५३।।
पनवी गाथा के भावार्थको देखते हुए गृहस्थ के बर्तन बाह्य उपयोग में लेते समय भी पूर्व कर्म एवं पश्चात् कर्म की संभावना का दोष है। अतः गृहस्थ के बर्तन, वस्त्रादि के उपयोग में विवेक का होना अति आवश्यक है नहीं तो अशुभ कर्म का विशेष बंध होता है। पंचदशम स्थान 'पर्यंक वर्जन' :
आसंदीपलिअंकेसु, मंचमासालटसु वा। अणायरिअमज्जाणं, आसइतु सइत्तु वा ||५४|| .. . नासंदीपलिअंकेसु, न निसिज्जा न पीढर।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 102