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७६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक को आने देने की और कुमार ने उससे जीवनभर प्रेम में अनुरक्त रहने की प्रतिज्ञाएं लीं।
राजकुमार ने पिता को इसकी सूचना दी। राजा ने प्रसन्नतापूर्वक दोनों का विवाह सम्पन्न कर दिया। वे सानन्द रहने लगे। कुछ समय बाद.मगावती के पास धाय को छोड़कर राजकुमार पिता से मिलने गया। मगावती ने चीर प्राप्त कर लिए और धाय से यह कहकर उड़ गई'मेरे पिता का नाम रूपमुरारि और स्थान कंचनपुर है। राजकुमार ने मुझे बड़ी सरलता से पा लिया, इसलिए मेरे महत्त्व को नहीं जानता। मैं जा रही हूँ, किन्तु वह मुझसे अवश्य मिले।' . राजकुमार वापिस आया तो धाय को विलखते देखा | वह मृगावती को न देख मूच्छित हो गिर पड़ा। फिर योगी का वेश धारण करके खोजने चल पड़ा । मार्ग में एक राजा मिला जिसने उसके योग का कारण पूछा । उसने सारी कथा कह सुनाई। उसे दया का संचार हुआ । अतः जंगम को बुलाकर कंचननगर का मार्ग दिखाने को उसके साथ भेज दिया। उसने समुद्र के किनारे लाकर खड़ा कर दिया. और कहा-यही • घाट है । एक नौका पर योगी चढ़कर चला।
समद्र में तेज़ लहर से नाव लपेट में आ गई। उसी समय एक भयंकर सर्प दिखाई पड़ा। राजा ने प्राणरक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। उसी समय दूसरा सपे भी आ गया और दोनों आपस में लड़ गये। नाव भी किसी प्रकार किनारे लगी। फिर उसने एक वाटिका में प्रवेश किया जहां उसे एक अपूर्व भवन दिखाई पड़ा। भवन के अन्दर एक राघववंशी राजा देवराय की कन्या रूपमनि थी जिसे एक वर्ष पूर्व राक्षस उठा लाया था।
प्रथम वह उसकी सेज पर जाना नहीं चाहता था परन्तु उसके अनुरोध पर वह उसकी सेज पर बैठ गया। तभी सात सिर और चौदह भुजाओं वाला राक्षस दिखाई पड़ा। रूपमनि भयभीत हुई परन्तु राजकुमार ने अपने चक्र से उस राक्षस का वध कर दिया।
रूपमनि उसकी इस वीरता पर मुग्ध हो गई। राजकुमार ने उसे अपना पता बताया। योगी होने का कारण भी बताया । उसी समय रूपमनि का पिता अपनी पुत्री की खोज में आ पहुंचा। राजकुमार की शूरता देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। राजकुमार से अपनी कन्या से