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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ७५ अतुल वैभव-सम्पन्न तथा धर्म में रुचि रखने वाला एक राजा पुत्रोत्पत्ति न होने के कारण अत्यन्त दुःखी था। भगवान् की मनसा, वाचा, कर्मणा पूजा करने पर राजा को पुत्ररत्न प्राप्त हुआ । पण्डितों ने कुमार को तीव्र भाग्यशाली बताया। परन्तु आगे चलकर इसे स्त्री-वियोग होगा। राजा ने खूब दान दिया। उसके लालन-पालन की भरपूर व्यवस्था की। १० वर्ष की अवस्था तक आते ही वह बड़े-बड़े ग्रन्थ समझने लगा। शिकार भी खेलने लगा। एक दिन राजकुमार आखेट करने गया। वहाँ वह एक सप्तरंगी मगी को देखकर मोहित हो गया । मृगी पास के एक मानसरोवर में कूद गई। राजकुंवर ने अपना घोड़ा वृक्ष में बाँध, वस्त्र उतारकर सरोवर में मगी को खोजा। पता नहीं लगने पर वृक्ष के नीचे आकर उसकी याद में विलाप करने लगा। उसके साथी उसे खोजते-खोजते उस वृक्ष के नीचे आये । राजकुमार से उसके रुदन का कारण जानकर साथियों ने भी मृगी को खोजा परन्तु असफल रहे। राजकुमार की चिट्ठी लेकर वे घर लौट गये । राजकुमार वहीं रहा। दो प्रहर के भीतर ही राजा ससैन्य वहाँ पहुँच गया। राजकुमार ने राजा से प्रार्थना की कि उसके लिए वहीं एक महल बनवा दिया जाय । राजा ने वैसा ही किया। चित्रशाला में अनेक प्रकार के चित्र निर्मित किये गये । कुमार इसी महल में विरह में पड़ा रहता। दैवात् उसकी धाय वहाँ • पहुंची। सारा वृत्तान्त जानकर कुमार को बताया कि प्रत्येक एकादशी . को मृगावती यहाँ स्नान करने आती है। यदि उसी समय उसके वस्त्र चुरा ले तो वह सदा उसी के पास रहेगी। राजकुमार ने धाय की बात मान ली। मृगावती भी राजकूमार पर - आसक्त थी । वह एकादशी के दिन अपनी सखियों के साथ स्नानार्थ वहाँ पहँची। राजकुमार धाय के बताये मंत्रानुसार वहाँ पहले से बैठा ही था। जब सभी जल में उतर गईं तो राजकुमार ने चोर चुरा लिये। सखियाँ जो पहले से ही आशंकित थीं मृगावती को छोड़ पक्षी बनकर उड़ गईं । मृगावती मानसरोवर के अन्दर वस्त्ररहित रह गई। - मृगावती की अनुनय पर भी राजकुमार ने वस्त्र नहीं दिये। उसने एक दूसरा वस्त्र लाकर दिया। फिर उससे अपने विरह की दशा कह सुनाई। भोग-विलास से पहले ही मृगावती ने कुमार से उसकी सखियों
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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