SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ७७ विवाह करने का प्रस्ताव रखा और आधा राज्य देने को कहा। उसने आनाकानी की, फिर मानना पड़ा। दोनों का विवाह हुआ। राजकुमार रूपमनि की सेज पर कभी नहीं सोया । वह एक दिन अवसर पाकर मृगावती की खोज में निकल गया। काफी कठिनाई के बाद उसे एक गडरिया मिला। गड़रिये ने राजकुमार को स्थान तक न पहुँचाकर अपने कमरे में बन्द कर लिया। वहां और भी अनेक बंदी थे। वह प्रतिदिन एक आदमी को भूनता था और खा जाता था। एक दिन युक्ति से गड़रिये को बकरियों के साथ कुमार बाहर निकल आया । भागकर जा रहा था कि उसे एक भवन दिखाई पड़ा जहाँ वह छिप गया । चार पक्षी आये जो स्त्रीरूप में बदल गये। उन्होंने श्रृंगी बजाई तो चार मोर आये जो मनुष्य बन गये। वहाँ से वह भागा। मृगावती की खोज करने लगा। एक दिन कुमार एक वृक्ष के नीचे बैठा था। उस पर बैठे एक पक्षी ने कहा-एक कुंवर मृगावती से अनुरक्त है । उसके लिए उसने इतने कष्ट सहे हैं किन्तु अब दोनों के मिलन का समय निकट है।' इतना कहकर पक्षी उड़ गया। आगे चलकर वह कंचनपुर नगर में पहुंच गया। उसने किंगरो बजाना प्रारंभ किया, सभी लोग दौड़े आये। रानी ने इस योगो को बुला भेजा। ____ मृगावती ने उसे तुरन्त पहचान लिया। फिर भी संप्रभुता के मद में वह उसका परिचय पूछती है। राजकुंवर के सही-सही बतला देने पर वह • तिलमिला उठती है, फिर उसे वस्त्र पहनाकर मंदिर ले जाती है और राजा बना देती है । एक दिन मृगावती बाहर गई तो राजकुंवर से कहती गई कि इस कोठरी को मत खोलना । उसने मना करने पर भी कुतूहलवश उसे खोल दिया। उसमें एक बन्दी था जो मुक्त होने पर राजकुमार को आकाश में लेकर उड़ गया और उसे मार डालने को कहा। मृगावती वापिस आई तो वहाँ राजकुमार नहीं था । सब जगह खोजा गया। परन्तु राजकुमार उस मायावी का अन्त करके स्वयं ही लौटा। उधर रूपमनि के दिन विरह में बीत रहे थे। एक टाडा से उसने रोरोकर अपनी दशा राजकुमार से कह देने को कहा। दूलभ कंचनपुर पहुंचा। राजकुमार उससे मिलने आया। राजकुमार सभी समाचारों से अवगत हुआ। अपने पिता का पत्र मृगावती को सुनाया। राजकुमार ने आधा राजपाट अपने बड़े पुत्र को देकर मृगावती और छोटे पुत्र के साथ
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy