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६६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक काल सं० १९०७है। काव्य की दृष्टि से यह कोई महत्त्वपूर्ण कृति नहीं है। यह श्रीमद्भागवत के आख्यानों के आधार पर लिखी गई रचना प्रतीत होती है। प्रथम खंड में रुक्मिणीपरिणय का संक्षिप्त परिचय मात्र है । इसके बाद जरासंधवध, कालिवध आदि की कथा कई अध्यायों में दी गई है। सातवें अध्याय में कृष्ण और बलराम के विवाह का नारद-उग्रसेन द्वारा वार्तालाप कराया गया है। इसके बाद नारद रुक्मिणी के पिता भीमसेन के पास जाते हैं और उनसे श्रीकृष्ण के रूप-गुणों को प्रशंसा करते हैं। यह कथा विस्तार से कही गई है जिससे रुक्मिणी के हृदय में कृष्ण के प्रति अनुराग उत्पन्न हो जाता है। नारद इसी प्रकार द्वारिकापुरी पहुंचकर कृष्ण से रुक्मिणी के गुणों को चर्चा करते हैं जिसे सुनकर कृष्ण के हृदय में रुक्मिणी को व्याह लाने की इच्छा होती है। कृष्ण उसे विवाहने जाते हैं। सभी समस्याओं पर विजय पा वे रुक्मिणी का परिणय करके ले आते हैं । रुक्मिणी की अनेक सखियों के साथ रास का भी वर्णन किया गया है।
इस प्रकार हिन्दू प्रेमाख्यानकों को एक लम्बो परम्परा रही है। मध्ययुगीन हिन्दू प्रेमाख्यानकों की परम्परा ( सं० १०००-१९१२ ) में मगेन्द्र के प्रेम-पयोनिधि को अन्तिम कृति माना जा सकता है।' सूफ़ी प्रेमाख्यानक __सूफ़ी प्रेमाख्यानकों के अन्तर्गत निम्नलिखित रचनाएँ परिगणित को जा सकती हैं : रचना
रचयिता . रचनाकाल चन्दायन
दाऊद दलमई मृगावती
१५०३-४ ई० पद्मावती जायसी
१५४० ई० मधुमालती मंझन
१५४५ , रतनावती जान
१६३४ , रतनमंजरी कामलता
१६२१ , मधुकरमालती कथा मोहनी
१३७६ ई०
कुतुबन
१६३४ ,
१. डा० हरिकान्त श्रीवास्तव, भारतीय प्रेमाख्यान काव्य, पृ० २१.