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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानों का ऐतिहासिक विकास : ६५ कुमार को एक गुटिका दी और कहा कि मैं प्रतिदिन रात को लौटती हूँ । आप अकेले रहते हैं अतः इस गुटिका को लेकर कहीं भी घूम सकते हैं । कुमार एक दिन वहाँ से निकल धरमपुर नगर पहुँचा । इस नगर में उसकी भेंट वहाँ की राजकुमारी सूरजप्रभा से हो गई । वह उसे अपने महल में ले गई। दूसरे दिन उससे छुटकारा पा वह कनकपुर की ओर चला । १४ दिन बाद वह कनकपुर पहुँचा । वहाँ उसे पता चला कि ससिकला को कुछ लोग मन्त्रबल से उठा ले गये हैं । कुमार ने उसे खोजने का सफल प्रयास किया । इस प्रकार दोनों मिले और दोनों का विवाह हुआ । कुमार घर को लौटा तो उसने रास्ते में सूरजप्रभा को भी साथ ले लिया । मार्ग में उसकी भेंट मंत्रीसुत से हो गई । मंत्रीसुत दोनों राजकुमारियों को पाने का षड्यन्त्र रचने लगा । एक बार दोनों मित्र घूमने निकले तो एक मृत बन्दर मिला । कुमार ने अपना मन्त्रबल दिखाने के लिये बन्दर के शरीर में प्रवेश किया। मंत्रीसुत ने धोखा किया । वह कुमार के शरीर में प्रविष्ट हो गया और अपने शरीर को काट डाला । कुमार के वेश में राजकुमारियों के पास गया । परन्तु राजकुमारियों को शक हो गया । इधर उस बुद्धिमान् बन्दर की चर्चा सब जगह हो रही थी। सूरजप्रभा उस बन्दर के पास गई तो बन्दर (कुमार) ने उसे पहचाना। दूसरे दिन सूरजप्रभा एक मरा तोता ले गई और बन्दर के प्राण तोंते में लेकर घर आ गई । तोते ने मंत्रीसुत को अपना परिचय दिया । वह घबड़ाया । सूरजप्रभा ने मन्त्रबल से मंत्री के प्राण निकाल दिये और तोते के प्राण उसमें डाल दिये । कुमार दोनों रानियों को साथ ले घर लौटा । रास्ते में महिपाल -सुता का घर मिला । महिपाल ने अपनी लड़की का अपमान करने के कारण राजकुमार से युद्ध किया । महिपाल हार गया । यहीं चन्द्रप्रभा द्वारा भेजा हुआ उसे एक तोता मिला । उसने चन्द्रप्रभा के विरह की दशा का वर्णन किया । कुमार जहाज पर चढ़कर घर वापिस आ रहा था कि समुद्र में भयंकर तूफान आ गया और जहाज टूट गया । कुमार की चीत्कार पर सिन्धुपुरुष ने प्रकट होकर उसे सान्त्वना दी और उसकी दोनों रानियों को यक्षिणी की सहायता से खोजकर कुमार को सौंप दिया। इस प्रकार कुमार अपनी पत्नियों के साथ घर पहुँचा । रुक्मिणीपरिणय- इसके रचयिता श्री रघुराज सिंह जूदेव हैं । रचना१. सं० - प्र० - गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, लक्ष्मी वेंकटेश्वर, कल्याण - मुंबई, सं० १९८१. ५
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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