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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ६१ भी आकर्षक था। मंडप में लगातार नरेश आ-आकर अपना स्थान ग्रहण कर रहे थे। सभी नरेशों के बीच सूरसेन सूर्य के समान तेजवान् था। कुमारी ने मंडप में प्रवेश किया और अनेक नरेशों के सामने से होती हुई वह सूरसेन तक पहुँचकर रुक गई और गले में जयमाला डालकर पैरों पर झुक गई । यह विवाह बड़े उल्लास और आनन्द के साथ सम्पन्न हुआ।
चम्पावती नरेश ने सूरसेन से प्रार्थना की कि सरसेन रम्भा को पुत्र प्राप्ति तक चम्पावती में रहें। विजयपाल ने अपना राज्य रम्भा के होने वाले पूत्र के नाम संकल्प कर दिया। मन्त्री ने राजा की आज्ञा मानकर सूरसेन से चम्पावती रहने का आग्रह किया। रम्भा को रात्रि के समय छलपूर्वक सूरसेन के पास चित्रशाला में पहुंचा दिया। उसके मनोरथ पूर्ण हुए । सूरसेन ने कल्पलता से विवाह की बात छिपा ली।
उधर कल्पलता विरह से तड़प रही थी। यहीं कवि ने बारहमासे का सुन्दर चित्रण किया है। सभी सुहावने महोने बीतते गये पर कल्पलता का प्रिय नहीं आया । अन्त में उसने विद्यापति नाम के शुक को अपना विरह बताकर चम्पावती भेजा । ऐसे विलक्षण शुक को रम्भा ने अपने बाग में देखकर पकड़ लिया और सोने के पिंजरे में बन्द करके दूध-भात खिलाया। शुक के रहस्य को रम्भा ने सूरसेन से जान लिया और कल्पलता को शीघ्र ले आने का आग्रह किया। कुमार अपनी सेना लेकर ब्रह्मकुंड की ओर चल पड़ा। साथ में परिचारिकाएँ और रम्भा भी थीं। मायानगर की सीमा पर पहुँचते ही मदन ने मार्ग रोका। अतः युद्ध हुआ। युद्ध में विजय हुई । उसमें कटे हुए मुण्डों की माला सूरसेन ने शिव को पहनाई। कल्पलता की और रम्भा की भेंट दो बहनों के समान हुई। समय से रम्भा को पुत्रोत्पत्ति हुई । जिसकी खुशी में याचक भी अयाचक बन गये, इतना दान दिया गया।
उधर पूत्र के पास न होने से राजा सोमेश्वर और रानी कमलावती को बुरी दशा थी। वे बार-बार कलियुग को कोसते जिसमें बेटे जन्मदाता माँ-बाप को भूलकर पत्नी के ही हो जाते हैं। उन्होंने पुरोहित-पुत्र पुरुपोत्तम को चम्पावती से सूरसेन को लाने के लिए भेजा। सूरसेन माँ-बाप को खबर पाते ही अविलम्ब अपनी रानियों के साथ वैरागर के लिए चल पड़ा । कुछ आवश्यक जनों को साथ लिया और दहेज आदि का सामान पीछे आने को छोड़ दिया । सूरसेन अपने माँ-बाप के घर पहुँच गया। माँ