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________________ पुरोवाक् प्रस्तुत ग्रन्थ काशी विश्वविद्यालय की पी-एच० डी० उपाधि के लिए लिखे गए 'अपभ्रंश कथाकाव्यों का हिन्दी प्रेमाख्यानकों के शिल्प पर प्रभाव' शीर्षक शोध-प्रबन्ध का प्रकाशित रूप है। मैंने इस ग्रन्थ को पूज्य गुरुवर डा० शिवप्रसाद सिंह जी के निर्देशन में लगभग साढ़े चार वर्षों के अनवरत प्रयत्न से पूर्ण किया था। एकाधिक बार अपभ्रंश के अगाध सागर के विस्तार को देख भयभीत होने की स्थितियों ने मुझे कूल से ही लौट चलने को विवश किया। परन्तु गुरुवर ने अवगाहन-विधि प्रदान करके मुझे अपभ्रंश-सागर में उतार ही दिया । मैं कबीर की साखी गुनगुनाते कार्य करता रहा सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार । लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार ।। और वही कार्य आज प्रकाशित होकर आपके सामने पहँच रहा है। मैं अपने श्रम और उसके फल से संतुष्ट हैं। फिर भी इस दिशा में किया गया यह कार्य सर्वथा पूर्ण हो है, ऐसा मैं नहीं कहूँगा । हिन्दी प्रेमाख्यानों के शिल्प पर कार्य करने की काफी गुंजाइश है। हाँ, आगे मेरे जैसे कार्य करने वालों को इस ग्रन्थ से कुछ दिशाबोध होगा-इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं समझनी चाहिये। ग्रन्थ में क्या और वह कहाँ है, इसकी जानकारी विषयानुक्रमणिका से तथा अध्यायों का सारांश उपसंहार से ज्ञात हो सकेगा। अतः यहाँ मैं अध्यायों के विषयों की रूपरेखा प्रस्तुत करने की परम्परा का निर्वाह नहीं कर रहा हूँ। __ श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद जी द्विवेदी ने ग्रन्थ का प्राक्कथन लिखने का अनुग्रह किया है । शोध-प्रबन्ध लिखने से लेकर अब तक उनकी सदैव मुझ पर कृपादृष्टि रही है, इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। वस्तुतः किसी भी निर्माण प्रक्रिया में अनेकविध वस्तुओं की आवश्यकता होती है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यदि मुझे शोध-प्रबन्ध लिखते समय संरक्षक, निर्देशक, सहयोगी, प्रेरक अथवा प्रोत्साहित करने वालों का सद्भाव न प्राप्त होता तो मैं निश्चित ही अपना कार्य सम्पन्न करने में
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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