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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानों का ऐतिहासिक विकास : ५५ गुन समुद्र मंथान ग्यान मंथानिय ढुंढिय । - जेतु हेतु गहि हाथ रतन नवरस मथ कढिय ॥ वागेसुर परसाद प्रघट क्रम क्रम सब दिष्षह । अलप बुद्धि कहं हेत धीर मुंहि दोस न दिज्जह ॥ गुरु नाम सुमर पोहकर सुकवि गरुव ग्रंथ आरंभ किय । रस रचित कथा रसकनि रुचित रुचिर नाम रसरतन दिय ॥२०॥ वहि समुद्र चौदा रतन, मथे असुर सुर सैन | इहि समुद्र नव रस रतन नाम धरो कवि तैन ॥ २१ ॥ भारतीय प्रेमाख्यानकों का अधिकांश मूल लोक-गीतों, मुहावरों, लोक- प्रचलित किंवदंतियों अथवा दंतकथाओं के आधार पर खोजा जा सकता है । रसरतन भी एक दंतकथा' अर्थात् काल्पनिक कथा है । पुहकर ने इसे दंतकथा के रूप में स्वीकार किया है : पहले दंतकथा हम सुनी । तिहि पर छंद वंद हम गुनी ॥ श्रवनन सुनी कथा हम थोरी । कछुवक आप उकति तैं जोरी ॥आदि खंड८९ ॥ रसरतन में कथा की सरसता और रोचकता का पूरा-पूरा पता उसका पाठ करने से ही चलता है । रसरतन में प्रेमाख्यानकों में आने वाली कथानक रूढ़ियों का भी प्रयोग हुआ है जिनका उल्लेख यथास्थान किया जायेगा । रस रतन की रचना का समय सं० १६७३ है । कथा का सारांश इस प्रकार है ? पुहकर ने रसरतन में अद्वितीय कथा -निर्माण किया है । कामकन्दला तो काम ने सिर्फ जन्म ही लिया था, यहाँ उसे वैरागर के राजा सोमेश्वर के पुत्र सूरसेन और चम्पावती नरेश को तनया रंभावती का संयोग कराने के लिए स्वयं दूत बनना पड़ा : नृप तनया रंभावती, सूर पृथ्वीपति पूत । वरनों तिनकों प्रेमरस, मदन भयो तहं दूत ॥ आदि खंड १०२ ॥ वैरागर के राजा सोमेश्वर पूर्व दिशा में राज्य करते थे । सूर्योदय के कारण यह दिशा सर्व दिशाओं से महत्त्वपूर्ण है । राजा अतुल वैभवसंपन्न । था । परन्तु पुत्राभाव के कारण वह अत्यंत मर्माहत था अपनी रानियों के साथ काशी आया । यहाँ चिंतामणि एक बार वह पंडित ने उन्हें
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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