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________________ ३४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक कहा । अजमेर के राजा से विवाह तय हुआ। समय से बारात राजद्वार पर पहुंची। चारों ओर स्वागत में हर्षोल्लास का वातावरण था । भांवरों के समय प्रथम फेरे में राजा भोज ने अपने जामाता वीसलदेव को आलीसर तथा मालदेश दे दिया। दूसरे फेरे में रानी सपादलक्ष देश, अपार धनराशि, तोडा, टंडक, बंदी और कूडालदेश देती है। तीसरे फेरे में भोज राजमती के साथ ताजी और केकाण (घोड़े ) मंडीवर का देश देता है । चौथे फेरे में उसे समस्त गुजरात और चित्तौड़ आदि मिलते हैं । इस प्रकार बहुत से सामान देकर भोज ने वीसलदेव को विदा किया। राजमती को हाथी पर बैठाकर वीसलदेव अजमेर की ओर गया। रास्ते में 'आनासागर' मिलता है । राजा अजमेर पहुँचकर सुखभोग से रहने लगता है। मुख्य कथा अब प्रारम्भ होती है। वीसलदेव को अधिक धन मिलने से घमंड हो गया। वह एक दिन रानी राजमती से भी घमंड की बातें करने लगा। राजमती ने भी ताना मारा कि गर्व नहीं करना चाहिए, उड़ीसा के राजा तो तुमसे कई गुने अधिक धनी हैं। राजा को ठेस पहुंची। उन्होंने रानी से पूछा कि तुम जैसलमेर की रहने वाली हो, तुम्हें उड़ीसा का कैसे पता चला ? इस पर राजमती अपने पूर्वजन्म की कहानी सुनाती है कि मैं पूर्वजन्म में हरिणी थी और उड़ीसा के जंगलों में रहती थी। एकादशी का व्रत निर्जल करती थी। एक दिन मुझे एक अहेरी ने बाण मारे और मैंने जगन्नाथ जी के सामने अपने प्राण त्याग दिये। उनसे यह प्रार्थना भी की कि अब मेरा जन्म पूर्व देश में न हो, क्योंकि वहाँ के लोग खराब होते हैं और अच्छी वस्तुओं का भोग नहीं करते। वीसलदेव उड़ीसा जाने का दृढ़ निश्चय करता है। राजमतो के अनेक प्रकार से समझाये जाने पर तथा अपनी भाभी द्वारा भी समझाये जाने पर वह उड़ीसा जाने का निर्णय अटल रखता है। वह ज्योतिषी से जाने का मुहूर्त पूछता है। परन्तु उस ज्योतिषी को रानी पहले ही मना लेती है कि मुहर्त ४ पाह बाद का निकाले। रानी ने सोचा था कि इस अवधि में वह अपने पति को मना लेगी। किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ । मुहूर्त आने पर वह यात्रा पर निकल पड़ा। इधर जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, रानी की व्यथा बढ़ती जाती है । बारहमासे द्वारा रानी की व्यथा का वर्णन कवि ने किया है। ११ वर्ष
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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