________________
हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ३३ रचयिता नरपति नाल्ह नामक कवि हैं। राजमती का विरह-वर्णन इसमें बारहमासे के माध्यम से अधिक उभरा है। इसे प्रेमकथानक अथवा काव्य न मानने वालों का कारण युक्तियुक्त साथ ही सामयिक नहीं जान पड़ता। आचार्य रामचन्द्र शक्ल के लिए 'यह काव्यग्रन्थ नहीं, केवल गाने के लिए लिखा गया था।'' 'न तो इसमें कोई काव्यसौष्ठव है और न वर्णनों में किसी प्रकार की रोचकता मिलती है।'' जान पड़ता है, बात कुछ दूसरे ढंग की कह दी गई है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद का कथन है कि अनुभूतिरहित या हृदयहीन काव्य यह नहीं है। डॉ० माताप्रसाद गुप्त इस रचना को महत्त्वपूर्ण मानते हैं । वीसलदेव के वियोग में राजमती का बारहमासा है, वह ललित है किन्तु प्रयास के अनन्तर जो दोनों का मिलन कवि ने वर्णित किया है, वह भी बहुत सरस है। ग्रंथ के रचनाकाल के सम्बन्ध में भी प्रमाणों की भिन्नता के कारण मतवैभिन्य है। श्री सत्यजीवन वर्मा इसका रचनासं० १२१२ मानते हैं । डॉ० तिवारी ने विजोल्यां के शिलालेख का प्रमाण देते हुए विग्रहराज तृतीय को भोज के भाई उदयादित्य का समकालीन सिद्ध किया है। भोज की पुत्री राजमती का विवाह वीसलदेव तृतीय से सिद्ध किया है । उन्होंने विग्रहराज का समय ११५० और ग्रन्थरचनासं० १२७२ माना है । डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने सं० १४०० के आसपास रचनाकाल सिद्ध किया है। अस्तु, इस विषय में विस्तार आवश्यक नहीं है । ग्रन्थ की संक्षिप्त कथा इस प्रकार हैं : __ कवि कथा प्रारम्भ करने से पहले अपनो सुप्त काव्य शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए गणेशजी और सरस्वती की वंदना करता है। धारा नगरी में राजा भोज का राज था । इनके अस्सी सहस्र हाथी और ५ अक्षौहिणी सेना थी। पुत्री राजमती के विवाहयोग्य हो जाने के कारण अपनी रानी के प्रस्ताव पर राजा भोज ने ज्योतिषी को वर खोजने को १. पं० रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० ३०. २. डा० उदयनारायण तिवारी, वीरकाव्य, पृ० १९६. ३. आ० विश्वनाथप्रसाद मिश्र, हिन्दी-साहित्य का अतीत, पृ० ७६. ४. डा० माताप्रसाद गुप्त, हिन्दी-साहित्यकोश, भाग २, पृ० ३६६ ५. डा० उदयनारायण तिवारी, वीरकाव्य, पृ० १९४. ६. डा० माताप्रसाद गुप्त, हिन्दी-साहित्यकोश, भाग २, पृ० ३६६.
.३