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________________ ३२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक भेजा। परन्तु मालवणी संदेशवाहकों को ढोला से भेंट होने के पूर्व ही मरवा देती थी। एक बार पिंगल ने ढाढ़ियों को दूत बना कर भेजा। मालवणी ने इन्हें दीन जान कर नहीं मरवाया । ढाढ़ियों से मारवणी का समाचार ज्ञात करके ढोला विरह से व्याकुल हो गया । ढोला मारवणी के पास जाने को तैयारी में था कि मालवणी को मालम हो गया। वह चौकन्नी हो गई। एक दिन उसके सोने पर ढोला ऊँट लेकर चला । परन्तु दैवात् ऊँट के बोल उठने से वह जाग गई और ढोला को रोकने का असफल प्रयास किया। इस पर भी मालवणी ने सुग्गे को पढ़ाकर भेजा कि रास्ते में ढोला को संदेश दो कि मालवणी मर गई। परन्तु. ढोला ने इस समाचार को भी अनसुना कर दिया। प्रेमी को प्रेमिका के प्राप्त करने में यदि अनेकों अकल्पित और दुःसाध्य बाधाओं का सामना न करना पड़े तो वह प्रेम ही क्या ? शायद इसीलिए ढोला के मार्ग में एक रोड़ा और आ टकराया। ऊमर सूमरा ने मारंवणी से परिणय का प्रस्ताव पिंगल को भेजा। प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाने पर वह जल उठा। वह मौके की तलाश में रहने लगा। ऊमर सूमरा को जब यह पता चला कि ढोला अकेले ही जा रहा है तो उसने अपने भाग्य को सराहा। उसने ढोला से मिलकर घात करने का निश्चय किया। ढोला उसकी चाल में फंस गया। मारवणी को एक नर्तकी ने जो उसके पोहर की हो थी, उसे ऊमर सूमरा को चाल बंता दी। मारवणी ने ऊंट को छड़ी मार कर भगा दिया, जिससे ढोला उसे पकड़ने आया तो उसने उसे रहस्य बता दिया । वे ऊँट लेकर भागे । ऊमर सूमरा ने उनका पीछा किया । ऊँट के पैर बँधे होने पर भी वह बड़ी तेजी से भाग रहा था। मार्ग में किसी चारण के ध्यान आकृष्ट करने पर, ऊँट पर बैठे हो बैठे उसने अपनी छुरी द्वारा ऊँट का बन्धन कटवाया। अब ऊंट और भी तेजी से भागा। ऊमर सूमरा हताश होकर लौट आया। नरवर पहुँचकर ढोला ने मारवणी और मालवणी दोनों को समझाकर एक कर लिया और सभी साथ-साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे। वीसलदेवरासो-वीसलदेवरासो के तीन संस्करण प्राप्त हैं।' इसके १. (क) सं०-सत्यजीवन वर्मा, का० ना० प्र० सभा से प्रकाशित, सं० १९८२. (ख) सं०-डा० माताप्रसाद गुप्त, हिन्दी-परिषद, प्रयाग विश्वविद्यालय.. . (ग) सं०-डा० तारकनाथ अग्रवाल, हिन्दी प्रचारक, वाराणसी, ई० १९६२.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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