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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ३१ इनमें से कतिपय प्रेमाख्यानकों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है। हिन्दू प्रेमाख्यानकों का संक्षिप्त परिचय ढोला-मारू रा दोहा-यह लोक-काव्य है। इसके रचनाकाल के संबंध में एक मत नहीं है। डॉ० सत्येन्द्र इसका १००० से आरम्भ और सत्रहवीं शताब्दी में अन्तिम रूप मानते हैं। डा० हरिकान्त श्रीवास्तव १००० से १६०८ सं० इसका रचनाकाल मानते हैं। डॉ० मोतीलाल मेनारिया सं० १५३०, डा० शम्भूनाथ सिंह १४५० सं० से पूर्व और डॉ० नामवर सिंह १५वीं शताब्दी इसका रचनाकाल मानते हैं। समय निर्धारण को मुख्य कठिनाई का कारण इसका किसी एक कवि की रचना का न होना ही रहा है। निःसन्देह इसको कथा बड़ो सरस और मार्मिक है जो संक्षेप में इस प्रकार है : ___ नरवर के राजा नल को ढोला नामक एक सुन्दर पुत्र था। एक बार पूगल में दुर्भिक्ष पड़ा। वहाँ के राजा पिंगल ने नरवर में आकर शरण लो । पिंगल के मारवणी नाम की एक पद्मिनी कन्या थी। यद्यपि उस समय ढोला की अवस्था ३ वर्ष और मारवणो डेढ़ वर्ष की थी तथापि दोनों के अभिभावकों ने उनको परिणयसूत्र में बाँध दिया। कालान्तर में सुकाल आने पर राजा पिंगल अपने पूगल देश लौट गया। पुत्री के छोटी होने के कारण, उसको भी साथ लेता गया। ढोला के युवक होने तक वह अपने पीहर में ही थी। इधर ढोला का विवाह मालव को राजकुमारी मालवणी से हो गया। मारवणी के परिवार में इस विवाह के समाचार से चिंता होना स्वाभाविक ही था। अतः पिंगल ने नल के पास संदेशवाहकों को १. सं०-श्री-रामसिंह, सूर्यकरण पारोक और नरोत्तम स्वामी, ना० प्र० सभा, काशी, ई० १९३४. २. डा० सत्येन्द्र, मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का लोकतात्विक अध्ययन, पृ० २२६. ३. डा० हरिकान्त श्रीवास्तव, भारतीय प्रेमाख्यान काव्य, पृ० ३४. ४. श्री मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य. ५. डा० शम्भूनाथ सिंह, हिन्दी महाकाव्यों का स्वरूप विकास, पृ० २२४. ६. डा० नामवर सिंह, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृ० २६०.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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