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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ३५ बाद रानो एक दूत अपने पति के पास भेजती है। वह सातवें मास में उड़ीसा पहुंचता है । राजा से राजमती की शोचनीय दशा का वर्णन करता है। राजा आने के लिए वहाँ के राजा से कहता है। वहाँ की रानी कई शादियों का प्रलोभन देकर रोकने का असफल प्रयास करती है। वोसलदेव वहाँ एक योगी को रानी को अविलम्ब अपने पहुंचने की सूचना देने के लिए राजी कर लेता है। योगी इधर से पहुंच रहा है और उधर राजमती की बाँई भजा और बाँई आँख फड़कने का शुभ शकून होता है। योगी पहुंचकर रानी को सूचना देता है कि तुम्हारा पति तीसरे दिन तक आ जायेगा। ___ योगी के कथनानुसार राजा तीसरे दिन पहुँच जाता है। रानी बहुत प्रसन्न होती है। अजमेर में खुशियाँ मनाई जाती हैं। रानी एक बात से अधिक प्रसन्न है। वह कहती है कि पति की अनुपस्थिति में उसे किसी प्रकार का कलंक नहीं लगा । यद्यपि एक कुटनो ने उसे विचलित करने को चेष्टा को थी। वीसलदेव के आ जाने पर दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। कवि अपने ग्रन्थ को इस शुभकामना के साथ समाप्त करता है कि जिस प्रकार राजमती रानी अपने राजा से मिली, इसी प्रकार इस संसार में सभी मिलें । यहीं ग्रन्थ समाप्त होता है। सदयवत्स-सालिंगा-इसको रचना संवत् १५०० में श्री केशव द्वारा हुई।' डॉ० श्याम परमार ने 'सारंगा-सदावज' के परिचय में लिखा है : 'उत्तर भारत का यह कथा-गीत गुजरात में 'सदैवत (सदयवत्स)सावलिंगा', छत्तीसगढ़ के गोंडा में 'सदाविरज-सारंगा' तथा मालवा और राजस्थान में 'सुदबुद-सारंगा' नाम से प्रचलित है। जायसी ने इस प्रेमकथा का उल्लेख किया है। अब्दुल रहमानरचित 'संदेशरासक' में इसका उल्लेख आया है। छत्तीसगढ़ में प्रचलित कथा उत्तर भारतीय रूप से तनिक भिन्न है। उसमें सारंगा का नवलखा हार कहीं खो जाता है। सदाविरज अनेक कठिनाइयों का सामना करके उसे खोज लाता है और सारंगा को प्रदान करता है। वस्तुतः कहानी बहत पुरानी है। राजस्थानी और मालवी में इसके आधार पर अनेक 'ख्याल' और 'माच' ( लोक नाट्य ) की रचना हुई है। इस कथा की लोकप्रियता के १. डा० सत्येन्द्र, मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य का लोकतात्विक अध्ययन, पृ० २२६. २. डा० श्याम परमार, हिन्दी-साहित्यकोश, भाग २, पृ० ५८८.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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