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३४२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
कह व ठाइ आसीसिय चाइहि दयवरिहि । रामायणु अहिणवियअइ कत्थविकय वरिहि ॥
-संदेशरासक, ४३-४४. अर्थात् कहीं चारों वेदों को जानने वाले पाठ कर रहे हैं। कहीं विविध रूप धारण करने वाले बहुरूपिये या बहुरूप धारण करने वालों द्वारा.. रासकपाठ हो रहा है, कहीं सदयवत्स और नल की कथा कही जा रही है। कहीं विविध विनोद के साथ महाभारत की कथा हो रही है और कहीं रामायण की कथा हो रही है । ___ संगीत-नृत्य आदि भी मनोरंजन के साधन थे। चर्चरी, चांचरि अथवा चाचरि जो कि ताल एवं नृत्य के साथ विशेष उत्सवादि में गाई जाती थी-सामूहिक मनोरंजन का साधन थी। विक्रमोर्वशीय ( चतुर्थ अंक ), समरादित्यकथा आदि रचनाओं में इसका उल्लेख मिलता है। वीर कवि ने जंबुसामिचरिउ में इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि महाकवि देवदत्त ने सरस चच्चरिया बन्ध में शांतिनाथ का महान् यशोगान किया तथा जिन भगवान् के चरणों की सेविका अम्बादेवी का रास रचा जिसका जिन भगवान् के सेवकों द्वारा नत्याभिनय भी किया जाता है :
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, चच्चरियबांधि विरहउ सरस गाइज्जइ संतिउ तारजसु । तच्चिज्जइ जिणपय सेवहि किउ रासउ अंबादेवहि ॥ १.४. सुदंसणचरिउ में नयनन्दी ने चच्चरि का उल्लेख किया है :
जिण हरेसु आढविय सुच्चरि ।
करहिं तरुणि सवियारी चच्चरि ॥७.५. उक्त उद्धरणों से इतना स्पष्ट है कि यह मनोरंजन का ही एक साधन था। हिन्दी प्रेमाख्यानक पदमावत, रसरतन आदि में चच्चरि अथवा चांचरि का वही रूप विद्यमान है जो उसके पूर्व था। यहां पदमावत से उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं : पिउ संजोग धनि जोवन वारी। भंवर पहप संग करहिं धमारी॥ होइ फागु भलि चांचरि जोरी। विरह जराइ दोन्ह जसि होरी॥
-पदमावत, षड्ऋतुवर्णन, ३३५.५-६.