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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३३७ युद्ध-स्थल का चित्र प्रस्तुत हो सके। वही प्रवृत्ति हिन्दी प्रेमाख्यानकों में भी अपनाई गयी। वैसी ही तुकबन्दी और शब्द-योजना।
हिन्दी प्रेमाख्यानकों की वर्णन-परिपाटी अपभ्रंश कथाकाव्यों की नींव पर ही खड़ी हई। इनकी कथानक-रूढ़ियों में तादात्म्य के सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है। यह भो वर्णन परिपाटी का अंग था। प्रेम होनेमें साक्षात् दर्शन, चित्र-दर्शन अथवा सौन्दर्य की प्रशंसा सुनना दोनों काव्यों में कारण माना जाता रहा है। जिस नारी से नायक का प्रेम-सम्बन्ध हुआ है उसके नख-शिख का वर्णन ये कवि अवश्य करते थे। सुदंसणचरिउ में मनोरमा का रूप-वर्णन करते समय कवि को उपमाएं ही नहीं मिल रही थीं। वह लिखता है कि जो मनोरमा लक्ष्मी के समान है उसकी तुलना किससे की जा सकती है ? जिसकी चाल से लज्जित होकर समस्त हंस मानस में चले गये। जिसके अतिकोमल अरुण चरणों को देखकर रक्त कमल जल में प्रविष्ट हो गए। जिसके पैरों के नखों की कांति से पराजित हो नक्षत्र आकाश में चले गये। जिसको जंघाओं की कदली से तुलना करने पर वह फीका पड़ गया आदि :
जा लछि समा तहे कावमा जाहे गइए सकलत्तइं।
णिरु णिज्जियइं, णं लज्जियउं हंसइमाणसे पत्तई॥४.१. जाहे चरण सारूण अइ कोमल, पेछेवि जले पइट्ट रत्तुप्पल ।
जाहे पायंणह मणिहि विचित्तई, णिरसियाई सहे ठियणकखत्तई। • जाहि लडह जंघहि उहामिउं, रंभउ णीसारउ होएवि थिउ। -- ' जाहे णियंबु बिवुब अलहंते, परिसेसियउ अंगु रह कंते॥
..इस प्रकार के नखशिख वर्णनों में पदमावत आदि हिन्दी प्रेमाख्यानक भी पीछे नहीं रहे। इनकी भी वही परिपाटी रही आई। इन सब बातों के अतिरिक्त दोनों ही प्रकार के प्रेमाख्यानकों में प्रेमोत्पत्ति, प्रेमोत्थान, मिलनस्थल आदि को प्रक्रियाएं समान रूप से चलती हैं । नायक का योगी होकर घूमना, किसी वाद्य विशेष द्वारा प्रेमिका को अपने आने की खबर देने जैसी घटनाएं कहीं-कहीं हूबहू मिल जाती हैं। नायिका की विरहावस्था में सखियों द्वारा उपचार किया जाना, समझाया जाना और सहायता करना ये सब भी सामान्य रूप से दोनों में आते हैं। रसरतन में - नायिका प्रथम मिलने से भयभीत होती है तो सखियां पहले ही समझाती