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३३६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक कंठभूषण छंद में भी उपर्युक्त प्रणाली अपनाई गई है :
कंठ अभूषन के वह नामा। यों सुमरे सुष प्रीतम स्यामा ॥१७० ॥ भुजा जनु नाग विराजत वाम। उरस्थल सोभित मोतिय दाम ॥ ३४॥.. वत्तीसौ लच्छिन लच्छि लसै।
तन ज्यों गुन अच्छरि लीलवती॥ पहकर ने छंद के नामोल्लेख के साथ ही यहां उसका लक्षण भी बता दिया है कि यह ३२ अक्षर का छंद है । पूर्ववर्ती अपभ्रंश साहित्य में इस प्रकार के कई उदाहरण मिल सकते हैं। जैसे नयनंदो ने प्रासंगिक विषय के साथ ही छंद के नाम का भी उल्लेख कर दिया है :
वसंततिलक सिंहोद्धता वा णामेदं छन्दः तुरंगति मदनो वा छन्दः
प्रियंवदा अनन्तकोकिला वा नामेदं छन्दः॥ .. प्रेमाख्यानकों में विविध छन्दों का प्रयोग प्रायः विशुद्ध भारतीय प्रेमाख्यानकों में हआ है। यों छन्दोगत परिवर्तन भी होते रहे। दोहा अपभ्रंश का पर्यायवाची ही बन गया । डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'यह ( दोहा ) नवीं-दसवीं शताब्दी में बहुत लोकप्रिय हो गया था। इस छन्द में नई बात यह है कि इसमें तुक मिलाये जाते हैं । संस्कृतप्राकृत में तुक मिलाने की प्रथा नहीं थी। दोहा वह पहला छन्द है, जिसमें तुक मिलाने का प्रयत्न हुआ और आगे चलकर एक भी ऐसी कविता नहीं लिखी गई जिसमें तूक मिलाने की प्रथा न हो। इस प्रकार अपभ्रंश केवल नवीन छन्द लेकर ही नहीं आई, बिल्कुल नवीन साहित्यिक कारीगरी लेकर भी आविर्भूत हुई।'' स्पष्ट है कि कविता में तुकबन्दी का प्रभाव सीधा अपभ्रंश से आया। यह लिखा जा चुका है कि छन्दोगत परिवर्तन प्रारम्भ से ही होते रहे। उनमें कुछ नवीन छन्द भी प्रकाश में आये और कुछ के नाम मात्र बदल गए। अपभ्रंश में विषय के अनुसार छन्द रखने की प्रथा थी। यदि कवि को युद्ध का वर्णन करना है तो वह ऐसे छन्द और शब्दयोजना का गठन करता है जिससे ध्वन्यात्मक रव से १. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ० ९३.