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३३४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
छप्पय, दोहा, सोमकांति, घाटक, सारदूल, चौपही, दंडक, सवैया, तोटक, पद्धरी, प्रयंगम, मोतीदाम, सोरठा, कुंडलिया, कवित्त, प्रवानिक, गीतिका, कंठभूषण, भुजंगप्रयात, सोरठा-दोहा, वथह, पैड़ी, गुनदोपक, गीतमालती, मोदिका, तोटकी, कामिनीमोहन, नाराच, गाथा, भुजंगी, लीलावती, दुर्मिला, त्रिभंगी, शंखधारा, चंद्रजोति ।
नयनंदी ने जिन छंदों का प्रयोग किया था उनको तालिका पीछे दी जा चुकी है। रसरतनकार ने जिन छंदों का प्रयोग किया है उनमें से गाथा, दोहा, पद्धरी, भुजंगप्रयात, त्रिभंगी, चौपही और मोतीदाम आदि. अनेक छंदों का नयनंदी आदि पूर्ववर्ती कवियों ने प्रयोग किया है। :
प्रयंगम छंद : यह २१ मात्राओं का छंद होता है। ८, १३ पर यति, आदि में गुरु और अन्त में जगण होता है :
उठत उरोज नवीन छीन कटि केहरी।, नूपुर की झनकार जराऊ जेहरी॥ कंज ते कोमल चरन अरुन अति वाम के। पूरित पंचह बान तरक्कस काम के ॥ ३३९ ॥
__ -रसरतन, पृ० १६१. वथूह छंद : डा० शिवप्रसाद सिंह इसे रोला का ही एक रूप मानते हैं।' रोला के संदर्भ में डा० विपिनबिहारी त्रिवेदी का मत है कि 'प्राचीन छंद ग्रन्थों में कोई रोला नामक छंद ही नहीं मिलता। हा, काव्य, वस्तु, वदनक, वत्थुओ और वत्थुवरण लगभग इसी के अनुरूप है।' छंद पयोनिधि भाषा में लिखा है कि उपदोहा के प्रथम दो चरणों के योग के समान चार चरण रखने से उस छंद को ( रोला ) रोलावत्थू कहते हैं। रोलावत्थू को दोहावत्थ का भेद माना गया है जिसके आनंदवत्थू, मंगलवत्थ, रायवत्थू और मोहनवत्थू ये चार भेद हैं। रस
१. चंदवरदाई और उनका काव्य, पृ० २३६. २. हरदेवदास, छंद पयोनिधि भाषा, ३.१९३-१९४. ३. वही, ७.१९२. ४. पउमचरिउ, संपा०-डा० हरिवल्लभ भायाणी, भारतीय विद्याभवन, बम्बई,
पृ० ७८.