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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३३३ णायकुमारचरिउ, कनकामर ने करकंडुचरिउ एवं अन्य अपभ्रंश कवियों ने पद्धरि छंद का प्रयोग कड़वक विधान के लिए किया है। करकंडुचरिउ का एक उदाहरण देखिए :
हिं सरवरिउग्गयपंकयाइं।
णं धरणि वयणि णयणुल्लयाई ॥-पृ० ४. जिस प्रकार अपभ्रंश में ८ यमकों अर्थात् एक कड़वक के बाद घत्ता देने को प्रणाली थी उसी प्रकार हिन्दी के दोहा-चौपाई में लिखे जाने वाले पदमावत, रामचरितमानस आदि ग्रन्थों में ७ चौपाई के बाद एक दोहा देने की प्रणाली चल पड़ी। ___ अपभ्रंश में जो स्थान पद्धरि का था वही हिन्दी में चौपाई को मिला। चौपाई छंद हिन्दी प्रेमाख्यानक कवियों का प्रिय छंद रहा है। कुतूबन की मगावती में प्रयुक्त छन्दों को चौपाई और दोहरा कहा गया है। उदाहरण के लिए : मृगावती सुनि जिअ रहसाई । कामा जनु मधवानल पाई ॥
-सूफी काव्यसंग्रह, पृ० ९८. जायसी, मंझन, उसमान, जान आदि कवियों ने क्रमशः पदमावत, मधुमालती, चित्रावली और कनकावती में इस छंद का प्रयोग किया है। चौपाई छंद के सम्राट तुलसीदास जी हुए जिन्होंने रामचरितमानस में इस छंद का सर्वाधिक प्रयोग किया। चौपाई और पद्धरि छंद मूलतः कथाकाव्यों में प्रयुक्त होने वाले छंद हैं। दोहा मात्रिक छंद है। इसके प्रथम और तृतीय चरण में १३-१३ मात्राएं एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण में ११-११ मात्राएं होती हैं। जायसोकृत पदमावत में सात चौपाइयों के बाद एक दोहे का क्रम रखा है। परन्तु उसमें ऐसे दोहे हो मिलते हैं जिनमें प्रथम-तृतीय चरणों में १३-१३ मात्राएं नहीं मिलती। १३ मात्राओं के स्थान पर कहीं १६ मात्राएं भी मिलती हैं। वास्तव में यह अपभ्रंश का ही प्रभाव समझना चाहिये। अपभ्रंश काव्यों में पद्धडिका ( १६ मात्राओं का छंद ), बदनक ( भी १६ मात्राओं का ) और पारणक (१५ मात्राओं का ) छंदों को कड़वकों में प्रयुक्त किया गया है। छंदों की विभिन्नता की परम्परा अपभ्रंश-कालीन है।
कवि पुहकर ने रसरतन में लगभग पैंतीस छंदों का प्रयोग किया है :