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- ३३२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
हो तो, सोलह मात्राएँ होती हैं । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार चार पद्धड़ियों यानी आठ पंक्तियों का कंडवक होता है । अपभ्रंश काव्यों में चौपाई का प्रयोग प्रारम्भिक अवस्था में पद्धड़ियों की अपेक्षा कम हुआ है । पद्धड़िया छन्दों में श्रेष्ठ और मन को प्रसन्न करने वाला माना जाता था । स्वयंभू कवि ने लिखा है कि रासाबंध में घत्ता छड्डाण और पद्धड़िया के प्रयोग से जनमन-अभिराम हो जाता है :
घत्ता छड्डणिअहिं पद्धड़ियाहि सुअण्ण रूए हि । रासाबंध कव्वे जणमण अहिरामओ होहि ॥
पुहकर ने रसरतन में लिखा है कि जिस प्रकार समस्त छन्दों में पद्धरी छन्द शोभित होता है वैसे ही पूर्ण कलाओं से युक्त चन्द्र शोभित हो: रहा था :
रतिनाथ देषि तहां धवल धाम । मनि मुक्ति जटित नैननि विराम ॥
नवसत कलानि मिलि लसत चंद ।
जिहि छंद समत पद्धरी छंद ॥ २४ ॥ - स्वप्न, पृ० ३१.
अपभ्रंश कथाकाव्य भविसयत्तकहा में पद्धरि छंद का बहुतायत से प्रयोग हुआ है । वहाँ इसका प्रयोग कडवक विधान के लिए हुआ है । कड़वक के अन्त में घत्ता प्रायः रखा गया है । पद्धरि के चार पाद और प्रत्येक पाद १६ मात्राओं का होता है । उदाहरण के लिए भविसयत्तकहा का पद्धरि छंद देखिए :
वित्थारिव लोयणदल विसाल । उल्लवइ हसेविणु कयणमाल ॥ आयो आएं फिर कवणु कज्जु । हुंतउ पडिउत्तरु देमि अज्जु ॥
उक्त पद्धरि छंद में चार पाद और प्रत्येक पाद में १६ मात्राएं हैं । भविसयत्तका में अलिल्लह छंद का भी प्रयोग हुआ है जो बाद के हिन्दी काव्यों में आकर अरिल्ल छंद के नाम से जाना गया । पुष्पदंत ने
१. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ० १०००