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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३३१ भूजंगललित, चंड, शृंगार, पवन, हरिणकुल, अंकणिका, धनराजिका ( हेला ), अंजनिका, वसन्ततिलक, पृथिवी, प्रियंवदा ( अनन्तकोकिला), पुप्फमाल, पंतिया, शालिनी, विद्युन्माला, यथोद्धता, कौस्तुभ ( तोणक ), अशोकमालिनी इत्यादि। कवि लक्खण ने जिणदत्तचरिउ में वाणिक-मात्रिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है : विलासिणी, मदनावतार, चित्तंगया, मोत्तियादाम, पिंगल, विचित्तमणाहरा, आरणाल, वस्तु, खंडय, जंभेट्टिया, भुजंगप्पयाउ, सोमराजी, सग्गिणी, पमाणिया, पोमणी, चच्चर, पंचचामर, णराच, तिभंगिणिया, रमणीलता, समाणिया, चित्तिया, भमरपय, भोणय, अमरपुरसुन्दरी, लहुमत्तियसिगिणी, ललिता इत्यादि । पउमचरिउ में गन्दोकधारा, द्विपदी, हेलाद्विपदी, मंजरी, शालभांजिका, आरणाल, जंभेदिया, पद्धड़िका, वदनक, पाराणक, मदनावतार, विलासिनो, प्रमाणिका, समानिका, भुजंगप्रयात आदि छन्दों का प्रयोग • हुआ है। अपभ्रंश के उक्त छन्दों की एक लम्बी तालिका प्रस्तुत करने का . मात्र यह उद्देश्य रहा है कि अपभ्रंश काव्यों में प्रयुक्त अधिकांश छन्दों • की जानकारी हो सके । इन छन्दों के लक्षण या परिभाषा देने का उद्देश्य तहीं है। यों अपभ्रंश के जिन काव्यों का सम्पादन हो चुका है उनके सम्पादकों ने अपनी भूमिका अथवा प्रस्तावना में सम्पादित काव्य के छन्दों पर भी विचार किया है। उदाहरणार्थ-भविसयत्तकहा ( पृ० २८३६ ), णायकुमारचरिउ (पृ० ५७-६२ ), करकंडुचरिउ (पृ० ४९ ), जम्बसामिचरिउ (पृ० १०१-१०७), मयणपराजयचरिउ ( पृ० ७१-७७ ) आदि हमारे सामने हैं। अपभ्रंश काव्य कडवकबद्ध अधिक लिखे गये। अपभ्रंश काव्यों में सर्ग की जगह प्रायः सन्धि का व्यवहार किया जाता है। प्रत्येक संधि में अनेक कडवक होते हैं और एक कडवक आठ यमकों का तथा एक यमक दो पदों का होता है। एक पद में, यदि यह पद्धड़ियाबद्ध
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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