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३२६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
जेठ जरै जग बहै लुवारा। उठे बवंडर धिकै पहारा ॥ बिरह गाजि हनिवंत होइ जागा । लंका डाह कर तन लागा ॥ चारिहँ पवन अकोरै आगी। लंका डाहि पलंका लागी॥ दहि भइ स्याम नदी कालिंदी। बिरह कि आगि कठिन असि मंदी॥ परबत समुंद मेघ ससि दिनअर सहि न सकहिं यह आगि। ... मुहमद सती सराहिए जरै जो अस पिय लागि ॥ ३५५ ॥ ..
-पदमावत, पृ० ३५४. पृथ्वीराजरासो में पृथ्वीराज भिन्न-भिन्न ऋतुओं में काम से प्रताड़ित होता है। चन्द ने ऐसे अवसरों पर ऋतुओं का अद्वितीय वर्णन किया है:
मोर सोर चहुँ ओर घटा आसाढ़ बंधि नभ । वच दादुर झिगुरन रटत चातिग रंजत सुभ ॥ नील बरन वसुमतिय पहिर आभ्रंन अलंकिय । चंद वधू सिव्यंद धरे वसुमत्तिसु रज्जिय ॥ . बरषत बूंद धन मेघसर तब सुभोग जद्दव कंअरि। नन हंस धीर धीरज सुतन इष फुहे मन मत्थ करि ॥२५-६५॥ घन घटा बंधि तम मेघ छाय। दामिनिय दमकि जामिनिय जाय ॥ बोलंत मोर गिरवर सुहाय।
चातिग्ग रटत चिहुँ ओर छाय ॥ कवि अहहमाण एक नायिका के माध्यम से वर्षा ऋतु का चित्रण करते हुए लिखते हैं कि कोई विरह-कातरा प्रिया किसी पथिक से अपने प्रिय को संदेशा भेजती है। वह मेघों का समय है। दसों दिशाओं में बादल छाये हुए हैं, रह-रह के घहरा उठते हैं, आकाश में विद्युल्लता चमक रही है, कड़क रही है, दादुरों की ध्वनि चारों ओर व्याप्त हो रही है-धारासार वर्षा एक क्षण के लिए भी नहीं रुकती। हाय पथिक, पहाड़ की चोटियों पर से उसने ( प्रिय ने ) कैसे सहा होगा?
झंपवि तम वद्दलिण दसह दिसि छायउ अंबरु, उन्नवियउ घुरहुरइ घोरु घणु किसणडंबरु ।