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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३२७
णहहमग्गि णहवल्लिय तरल तडयडिवि लडक्कइ, वदुररडण रउदु सदु कवि सहवि ण सक्कइ । निवड निरन्तर नीरहर दुद्धर धरधारोह मरु। किम सहउ पहिय सिहरट्टियइ दुसहउ कोइल रसह सरु॥१४८॥
-संदेशरासक. पृथ्वीराजरासो के वर्षा-वर्णन में कवि लिखता है-बादल गरज रहे हैं, प्रत्येक क्षण पहाड़ के समान बीत रहा है, सजल सरोवरों को देखकर सौभाग्यवतियों के हृदय फटे जा रहे हैं, बादल जल से सींच-सींचकर प्रेमलता को पलुहा रहे हैं, कोकिलों के स्वर के साथ मदन अपना बाणसंधान कर रहे हैं, दादुर, मोर, दामिनी, चातक शत्रु-सम व्यवहार कर रहे हैं आदि : .. .
घन गरजै घरहरै पलक निस रैनि निघहै। सजल सरोवर पिष्षि हियौ ततछन घन फहै ॥ जल बद्दल बरपंत पेम पल्लहौ निरन्तर । कोकिल सुर उच्चरै अंग पहरंत पंचसर ॥
दादुरह मोर दामिनि दसय अरि चवत्थ चातक रटय । . . पावस प्रवेस बालम न चलि विरह अगिनि तन तप घटय । • जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि बाद के ऋतुवर्णनों में प्राकृतिक दृश्यों का ध्यान उतना नहीं रखा जाने लगा जितना वस्तुओं को नामपरिगणना का। इस पद्धति में जिनपद्मसूरि के थूलिभद्दफागु के वर्षावर्णन को देखा जा सकता है :
झिरिझिरि झिरमिर झिरमिर ए मेहा वरसंति। खलहल खलहल खलहल ए बादला वहंति॥ झब झब झब झब झब झब ए बीजुलिय झक्कइ । थर हर थर हर थर हर एक विरहिणि मणु कंपइ ॥६॥ महुर गंभीर सरेण मेह जिमि जिमि गाजन्ते। पंच बाण निज कुसुम बाण तिम तिम साजन्ते ॥ जिमि जिमि केतकि महमहंत परिमल विगसावइ। - तिमि तिमि कामिय चरण लग्गि निज रमणि मनावइ ॥७॥