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३०६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
'खणखण खणन्त तिक्खग्ग खग्गु । हिलि-हिलि- हिलन्त हय चञ्चलगु ॥ गुल-गुल- गुलन्त गयवर विसालु । हणु-हणु भणन्त णरवर वमालु ॥ — पउमचरिउ, ६३.३
अब तक युद्ध की विभीषिका का वर्णन देखा । अब युद्ध के बाद युद्ध - स्थल की वीभत्सता का भी दृश्य देखिए - सियारिनें चिल्लाती, फेंकरती, और शोर मचाती हैं, अनेक भूतनियां भूख से डकारें लेती हैं । लाशों को चीरता - फाड़ता वैतालों का झुंड शोर करता, कबन्धों को उलटतत पलटता और ठेल देता ।'' रक्त रंगे सिर को सियारो धड़ से अलग करके फोड़-फोड़ करके खाने लगती है । रुधिर की नदी के किनारे भूतगण 'झिझरी' का खेल खेलते हैं, आदि ।
सिआ सार फेक्कार रोलं करतो । बहुखा बहू डाकिनी उक्करन्तो । बहुप्फाल वेआल रोलं करन्तो । उलट्टो पलट्टो कबन्धो पलन्तो । ... रकत क रांगल माथ उपरि फेरवी फोरि षा । '' रुहिर तरंगिण तीर भूत गण जरहरि खेल्लई । २०१-२१२.
जायसीकृत पदमावत में युद्धोपरान्त युद्ध-स्थल की वीभत्सता का वर्णन इस प्रकार किया है :
कंध कबंध पूरि भुइं परे । रुहिर सलिल होइ सायर भरे ॥ अनंद बियाह कह मंसुखाए । अब भख जरम जरम कहं पाए ॥ चौसठ जोगिन खप्पर पूरा । बिग जंमुकन्ह घर बार्जाह तूरा ॥ गीध चील्ह सब मांडौ छावहं । काग कलोल करहिं और गावहिं ॥ आजु साह हठि अनी बियाही | पाई भुगुति जैस जियं चाही ॥ जेन्ह जस मांसू मखा परावा । तस तेन्ह कर लै औरन्ह खावा ॥
- पदमावत, पृ० ५५२.
इसी प्रकार रसरतन ( युद्ध खंड, ६८-६९ ) एवं चन्दायन ( १४३, पृ० १५९ ) में युद्धस्थल पर वीभत्सता के दृश्य देखे जा सकते हैं. ।
१. डा० शिवप्रसाद सिंह, कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा, पृ० ३३-३८.
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