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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३०५
सुनै सोर इंदौर तैं इंद्र लज्यौ । जहां सैन चतुरंग गंभीर सज्यौ ॥ चले मत्त मैमंत घूमंत मंता । मनो बद्दला स्याम माथे चलंता ॥ चलते बंधी पाइ वैरी परक्कै । बजै घंघरू घोर घंटा ठनक्कै ॥ बनी किंकिनी लंक लागी धनक्कै । मनो पावसी रैन झिल्ली झनक्कै ॥ पलाने तहां तेज ताजी तुरंगा । परै उच्च उच्छाल मानौ कुरंगा ॥ - विजय० १९८ - २०३.
पुहकर कवि ने सेनाप्रयाण का वर्णन अपनी पूर्व परंपरानुसार ही किया है। स्वयंभू कविकृत पउमचरिउ के रण-यात्रा का विवरण इस प्रसंग में उद्धृत किया जा सकता है :
पेक्खु पेक्ख आवन्त साहणु । गलगज्जन्त महागय-वाहणु ॥ पेक्खु पेक्खु हिंसन्ति तुरङ्गम । हयले विउ भमन्ति विहङ्गम ॥ पेक्खु पेक्खु चिन्ध धुव्वन्तई । रह- चक्कई महियलें खुप्पन्तई ॥ पेक्खु पेक्खु वज्जन्तई तुरई । णाणाविह णिणाय गंभीरई ॥
— पउमचरिउ, २५.४.
इन्द्रावती में कवि नूरमुहम्मद ने घनघोर युद्ध का वर्णन किया है । योद्धाओं की ढालें इतनी अधिक हैं कि चारों ओर काली घटा छाई हुई लंगती है । खड्गों से बिजली जैसी चमक होती है :
भयउ घटा ढालन सो कारी, खरगत भये बीज चमकारी ।
माला खरग हनै सब कोई, वोडन खरग ठनाठन होई | गगन खरग घटा सोंठन गयऊ, हिन हिन औ धुन हन हन भयऊ । ओनई घटा धूर सों, दिन मनि रहा छिपाय ।
वहां महाभारत्य मा, सवद परेउ हू हाय ॥ - पृ० ९८.
स्वयंभू के पउमचरिउ में धनुष की टंकार और खड्गों की खनखनाहट के लिए जिस शब्दावलि का प्रयोग किया गया है वह इससे बहुत साम्य रखती है :
हण-हण-हणकार महारउद्दु । छण छण छणन्तु गुण - सिन्थ- सदु ॥ कर-कर-यरन्त कोदण्ड पयरु । थर-थर हरन्त णाराय - गियरु ॥
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