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३०४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
भडो को वि वाणेण वाणो दलतो, समद्धाइल दुद्धरो णं कयन्तो। भडो को वि कोतेण कोंतं सरंतो। करे गीढ चक्को अरी संपहत्तो। भडो को वि खंडेहि खंडो कयंगो।
भडन्तं ण मुक्को सगावो अभंगो॥ ६.१२. कोतिलता में विद्यापति ने युद्ध के दृश्यों में रूढ़िगत प्रतीक और . दृश्यों को ही रखा है : दुहु दिस पाखर उट्ठ मांझ संगाम भेट हो ॥
__ खग्गे खग्गे संघलिय फुलुग उपफलइ अग्नि को ॥ अस्सवार असिधार तुरअ राउत सो टुट्टइ॥
वेलक वज्ज निघात का कवचहु सो फुट्टइ ॥ अरि कुंजर पंजर सल्लि रह रुहिर चीकि गए गगन भर ॥ __रा कितिसिंह को कज्ज रसे वीरसिंह संगाम कर ॥
"-४.१८२-२८७. . विद्यापति की कीर्तिलता में युद्ध-स्थल पर हुँकार करके वीर गरज रहे थे। दौड़ते हुए घोड़ों की पंक्तियाँ टूट जाती थीं। बाण से कवच फट जाते थे। राजपुत्र रोष से तलवारों से जूझ रहे थे। आरुष्ट वीर आ रहे थे और इधर-उधर दौड़ रहे थे। एक-एक से लड़ रहे थे, शत्रु की लक्ष्मी का नाश कर रहे थे.""खंड से खंड टकरा रहे थे। अग्नि के स्फुलिंग फूट पड़ते थे। घुड़सवारों की तलवार की धार से राउत घोड़े के साथ कट जाता था :
हुंकारे वीरा गज्जन्ता पाइक्का चक्का भज्जन्ता ॥ धावन्ते धारा दुट्टन्ता सन्नाहा वाणे फुट्टन्ता॥ राउत्ता रोसे लग्गीआ खग्गही खग्गा भग्गीआ॥ आरुद्वा सूरा आवन्ता उमग्गे मग्गे धावन्ता ॥ एकक्के रंगे मेट्टन्ता परारी लच्छी मेट्टन्ता॥ .."खग्गे खग्गे संघलिअ फुलुग उपफलइ अग्गि को॥ अस्सवार असिधार तुरअ राउत सो टुट्टइ ॥
–४.१७५-१८१. पूहकर ने सेनाप्रयाण के अवसर पर इसी प्रकार की शब्दावलि का प्रयोग किया है :