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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : ३०३ ____ इसी प्रकार का युद्ध-वर्णन कविवर स्वयंभू ने किया है । सुभट सुभट से, कवंध कवंध से, धनषबाण धनुषबाण से, चक्र चक्र से, त्रिशूल त्रिशूल से भिड़ गये-आदि :
सुहडें सुहडु कवंध कवंधे । छत्ते छत्तु चिधुहउ चिधे । वाणे वाणु चाव वर-चावें । खग्गें खग्गु अणिट्ठिय-गव्वे । चक्कई चक्कु तिसूल तिसूलें । मोग्गर मोग्गरेण हुलिहूलें। कणएंण कणउ मुसलु वर-मुसले । कोंते कोंतु रणंगणे कुसले। सेल्ले सेल्लु खुरप्पु खुरुप्पे । फलिहि फलिहु गयावि गय-रुप्पे ॥
-स्वयंभूरामायण, ५३.७. जायसी के पदमावत में राजा और बादशाह का जो युद्ध दिखाया है उसमें और उक्त युद्ध-वर्णन में तुलना करने से पर्याप्त साम्य दिखाई पड़ता है। दोनों ओर से योद्धा कोप सहित मिले और हाथी हाथियों पर पिल गये। अंकुश बिजली के समान चमक रहे थे। हाथी मेघ के समान गरज रहे थे। पृथ्वी से आकाश तक दोनों दल भर गये, झुंड के ऊपर झुंड टूट रहे थे। कोई भी एक-दूसरे के दबाव से हटता नहीं था। दोनों ही ठोस वज्र की तरह थे : - कोपि जुझार दुहुँ दिसि मेले । औं हस्ती हस्तिन्ह कहं पेले। . आंकुस चमकि बीज अस जाहीं । गरजहिं हस्ति मेघ घहराहीं। . धरती सरग दुऔ दर जूहहिं ऊपर जूह ।
कोऊ टरै न टारे दुऔ बन समूह ॥-पृ० ५४९. हस्तिन्ह सौं हस्ती हठि गाहिं । जनु परबत परबत सौं बाहिं ॥ गरुअ गयंद न टारे टरहों । टूटहिं दंत सुंड भुइं परहीं। परबत आइ जो पहिं तराहीं। दर महं चापि खेह मिलि जाहीं। कोई हस्ती असवारन्ह लेहीं। सुंड समेटि पाय तर देहीं॥
-पृ० ५५०. देवसेनगणि के सुलोचनाचरिउ में जय और अर्ककीर्ति के युद्ध के वर्णन में कवि ने योद्धाओं को गति का चित्रण किया है :
भडो को वि खग्गेण खग्गं खलंतो, रणे मम्मुहे सम्मुहो आहणंतो।