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३०२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
इसी संदर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से रसरतन के अश्वों का वर्णन देखिए :
पलानें तहां तेज-ताजी तुरंगा । परै उच्च उच्छाल मानौ कुरंगा ॥ कथा सुलासं दुरंगा सुरंगा । खरै स्वेत पोतं तथा सावरंगा ॥ इराकी अरवी तुरक्की वच्छी । ममोला अमोला लिये मोल लच्छी ॥ वजे धाव धावें सें पूंछ अच्छी । मनो उड्डहीं वाहं बैठे सुपच्छी ॥ उभै कर्न ऊचे मह उच्च ग्रीवा । मनौ उच्च उच्चैश्रवा सोभ सीवां ॥ चढ़े सूरवंसी महासूर वीरं । उलंघे मनौ चापि वाराधि नीरं ॥ सवै षड्गधारी चित्तै चित्त मोहै । मनौ चित्त औरेषि पेषंत सोहै ॥ —२०३-२०८, पृ० १०३. चन्दायन पृ० १३३ एवं १४१ पर रावमहर के अश्वों का वर्णन देखा सकता है।
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युद्ध-वर्णन
अपभ्रंश काव्यों में युद्धों का चित्रण विस्तृत और दृश्यं उपस्थित कर देने वाला किया गया है । धवल कवि ने हरिवंशपुराण में जो युद्ध का दृश्य उपस्थित किया है वह साक्षात् एक चित्र उभार देता है :
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रहवउ रहहु गयहुगउ धाविउ, धाणुक्कहु धाणुक्क परायउ । तुरउ तुरंग कुरवग्ग विहत्थउ, असिवक्खरहु लग्गु भय चत्त । वजह गहिर तूर हय हिंसह, गुलु गुलंत गयवर वहु दीसह ॥ विर्घा तडातडा, मुछिह मडा मडा ।
कुंत धाय दारिया, खग्र्गाहिं वियारिया ।
जीव आस मेल्लिया, कायरा विचल्लिया ॥ ८९.१०.
अर्थात् रथ वाला रथ की ओर, गज गज की ओर दौड़ा, धानुष्क धानुक की ओर भागा, घोड़े घोड़े से, बिना खड्ग वाले निहत्थों से और असि भय छोड़कर कवच से भिड़ गई । वाद्य जोर-जोर से बज रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं और हाथी चिंघाड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं | योद्धा विद्ध हो रहे हैं, भट मूर्छित हो रहे हैं, कोई भालों के प्रहार से विदीर्ण हो रहे हैं, कोई खड्ग से छिन्न-भिन्न हो रहे हैं, जीवन की आशा छोड़ कर कायर भाग रहे हैं''।