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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : २९५ _ आइ चकोर देखि मुख रहा, सरवर नाहिं गगन सब कहा। भूले गगन अचक रहे तहां, अब निसि नषत कहहि दिन कहां ॥ -चित्रावली, पृ० ४७. इन सब उद्धरणों को देखने से ज्ञात होता है कि अपभ्रंश काव्यों तथा हिन्दी प्रेमाख्यानकों में पर्याप्त साम्य है। वस्त्र उतारकर तट पर रखने वाली बात एवं जल में स्नान करती हुई सुन्दरियों की रूपगत विशेषता का उल्लेख इन सभी काव्यों में समान रूप से किया गया है। बाग-वन-वर्णन अपभ्रंश काव्यों में वन, उपवन, बाग-बगीचों का विस्तृत वर्णन मिलता है। प्रायः कवियों ने विविध वृक्षों, लताओं आदि के नाम गिना दिए हैं। परन्तु पुष्पदन्त प्रभृति विद्वानों ने जो बाग-उपवनादि के वर्णन किए हैं उनमें मात्र वृक्षों के नाम ही नहीं गिनाए गए हैं अपितु. संस्कृत साहित्य के वर्णनों को भी मात कर दिया है। स्वयंभकृत रिट्ठणेमिचरिउ में एक वन का वर्णन किया गया है जिसमें वृक्षों की : नामावलि ही रख दी गई है : - हरिवंसुभावेण हरि विक्कम सारवलेण रणयं ।। दोसइ देव दारु तल ताली तरल तमाल छण्णयं । लवलि लवंग लउय जंबु वर अंब कवित्थ रिठ्यं । सम्मलि सरल साल सिणि सल्लइ सीस वस मिस मिट्रयं । चंपय चूय चार रवि चंदग वंदण वंद सुन्दरं। पत्तल वहल सीयल छाय लया हर मय मणोहरं । मंथर मलय मारुयंदोलियं पायव पडिव पुप्फयं । पुप्फफ्फोथ सकल भसलावलि णाविय पहिय गुप्फयं । केसरि णहर पहर खर दारिय करि सिर लित्त मोत्तियं । मोत्तिय पंति कति धवलोकय सयल दिसा वहतियं ॥२.१॥ कविवर राजसिंहकृत पुरानी हिन्दी के काव्य जिणदत्तचरित में जो उद्यान-वर्णन मिलता है उसमें भी अपभ्रंश काव्यों की तरह फलों अथवा वृक्षों के नाम गिना दिए गए हैं :
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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